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________________ * आचार्य [१५१ (३) निर्विचिकित्सा-'मुझे धर्माचरण करते-करते, तपस्या करते-करते इतना समय हो गया, मगर अभी तक उसका कुछ भी फल दृष्टिगोचर नहीं हुआ तो अब आगे क्या होने वाला है ! इतना कष्ट सहने का फल कौन जाने होगा या नहीं ?' इस प्रकार धर्मक्रिया के फल में सन्देह न करना निर्विचिकित्सा आचार है । जैसे उर्वर भूमि में डाला हुआ बीज, पानी का संयोग मिलने पर कालान्तर में फल उत्पन्न करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी क्षेत्र में, डाला हुआ धर्मक्रिया रूपी वीज, शुभ परिणाम रूप जल का योग पा करके कालान्तर में—यथोचित समय पर अवश्य ही फल देगा। किसी ने कहा है: निष्फल होवे भामिनी, पादप निष्फल होय । करणी के फल जानना. कभी न निष्फल होय ।। अर्थात्-करणी कदापि वन्ध्या नहीं हो सकती। उसका फल कभी न कमी अवश्य मिलता है । इस प्रकार की श्रद्धा रखना चाहिए। (४) अमूढदृष्टि-जैसे मूर्खजन खल और गुड़ को तथा सोने और पीतल को एक-सा समझते हैं, उसी प्रकार बहुत-से भोले लोग सभी मतमतान्तरों को एक-सा मानते हैं। किन्तु वीतराग द्वारा प्ररूपित दयामय धर्म की तथा स्याद्वादमय यथार्थ और परिपूर्ण तत्त्वज्ञान की तुलना कोई मत कदापि नहीं कर सकता। यह मत सर्वोत्कृष्ट है। मेरा अहोभाग्य है कि मुझे इस सर्वश्रेष्ठ धर्म की प्राप्ति हुई ! इस प्रकार की शुद्ध दृष्टि रखना अमूढ़दृष्टि श्राचार कहलाता है। (५) उपबृहन–सम्यग्दृष्टि और साधर्मी के थोड़े से भी सद्गुण की शुद्ध मन से प्रशंसा करना और वैयावृत्य करके उसके उत्साह को बढ़ाना । (६) स्थिरीकरण-किसी धर्मात्मा का चित्त उपसर्ग आने से अथवा अन्यमतावलम्बियों के संसर्ग के कारण सत्य धर्म से विचलित हो गया हो तो उसे स्वयं उपदेश देकर या दूसरे ज्ञानी-विद्वानों के सम्पर्क में लाकर यथोचित सहायता देकर, साता उपजा कर, उसके परिणामों को पुनः धर्म में स्थिर करना--दृढ़ श्रद्धावान् बनाना स्थिरीकरण प्राचार है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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