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________________ ® आचार्य ॐ [१३६ पड़ता है, पशुओं के काम करने पड़ते हैं अर्थात् इन्द्र आदि देव उन देवों पर सवारी करते हैं । वज्र के प्रहार सहन करने पड़ते हैं । इन नाना गतियों में वोर अतिघोर कष्ट सहन करके, अपने आपको काबू में रखने पर भी उन्हें संयत नहीं कहा जा सकता। सच्चे संयत अथवा त्यागी का लक्षण श्रीदशवैकालिक सूत्र में बतलाया है कि: जे य कंते पिये भोगे, लद्धे वि पिट्टि कुब्वइ । साहीणे चयइ भोगे, से हु चाइति वुच्चई ॥ अर्थात्-जो इष्ट, कामना करने योग्य और प्रिय भोगों के प्राप्त होने पर भी उनसे पीठ फेर लेता है—विमुख हो जाता है, उन्हें त्याग देता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है। ऐसे स्वेच्छापूर्वक अपने अन्तःकरण पर काबू रखने वाले संयत तीन प्रकार के होते हैं:-(१) आचार्यजी (२) उपाध्यायजी और (३) साधुजी। आगे अलग-अलग प्रकरणों में इन तीनों के गुणों का कथन किया जायगा। आचार्य सत्पुरुषों द्वारा जो व्यवहार किया जाता है, वह आचार कहलाता है, अथवा जो आचरने-आदरने योग्य वस्तु हो उसे आचार कहते हैं। आचरनेआदरने योग्य वस्तु वही होती है, जिससे सुख की प्राप्ति हो । वह सुख भी ऐसा होना चाहिए कि जिसमें दुःख का मिश्रण न हो, जिस सुख का परिणाम दुःख न हो । अर्थात् एकान्त और नित्य सुख ही वास्तव में सुख कहलाता है। ऐसा सुख प्राप्त कराने वाले पाँच पदार्थ हैं । यथा-(१) ज्ञान (२) दर्शन (३) चारित्र (४) तप और (५) वीर्य। यह पाँचों पंचाचार कहलाते हैं। पंचाचार का स्वयं पालन करने वाले तथा दूसरों से पालन कराने वाले मुनिराज आचार्य कहलाते हैं। मगर सच्चा प्राचार्य वही हो सकता है जिसमें निम्नलिखित छत्तीस गुण विद्यमान हों।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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