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________________ ११६ 1 ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश है। यथा-(१) आकाश, धन-घटाओं से आच्छादित हो जाता है और विद्युत् के साथ सात दिन-रात तक निरन्तर 'पुष्कर' नामक मेष वृष्टि करते हैं। इससे धरती की उष्णता दूर हो जाती है (२) इसके पश्चात् सात दिन वर्षा बन्द रहती है। फिर सात दिन पर्यन्त निरन्तर दुग्ध के समान 'क्षीर' नामक मेघ बरसते हैं, जिससे सारी दुर्गन्ध दूर हो जाती है। फिर सात दिन तक वर्षा बन्द रहती है। फिर (३) घृत नामक मेघ सात दिनरात तक निरन्तर बरसते रहते हैं। इससे पृथ्वी में स्निग्धता आ जाती है (४) फिर लगातार सात दिन-रात तक निरन्तर अमृत के समान अमृत नामक मेघ बरसते हैं। इस वर्षा से २४ प्रकार के धान्यों के तथा अन्यान्य सब वनस्पतियों के अंकुर जमीन में से फूट निकलते हैं। फिर सात दिन खुला रहने के बाद (५) ईख के रस के समान रस नामक मेघ सात दिन-रात+ तक निरन्तर बरसते हैं, जिससे वनस्पति में मधुर, कटक, तीक्ष्ण, कषैले और अम्ल रस की उत्पत्ति होती है । निसर्ग की यह निराली लीला देख कर बिलों में रहने वाले वे मनुष्य चकित हो जाते हैं और बाहर निकलते हैं। मगर वृक्षों और लताओं के पत्ते हिलते देखकर भयभीत हो जाते हैं और फिर अपने बिलों में घुस जाते हैं । किन्तु बिलों के भीतर की दुर्गन्ध से घबरा कर फिर बाहर निकलते हैं । धीरे-धीरे अभ्यास से उनका भय दूर होता है और फिर निर्भय होकर वृक्षों के पास पहुँचने लगते हैं। फिर फलों का आहार भी करने लगते हैं। फल उन्हें मधुर लगते हैं और तब वे मांसाहार का परित्याग कर देते हैं। मांसाहार से उन्हें इतनी घृणा हो जाती है कि वे जातीय नियम बना लेते हैं कि-'अब जो मांस का आहार करे, उसकी परछाई में भी खड़ा न रहना ।' इस प्रकार धीरे-धीरे जाति-विभाग भी हो जाते हैं और पाँचवें पारे * बीच में जो दो सप्ताहों का खुल्ला काल बताया सो ग्रन्थ से मानना । + पांच सप्ते वर्षांद के और दो सप्ते खुल्ले रहने के, यो सात सप्तों के ७४७-४६ दिन, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से भाद्रपद शुल्का पंचमी तक होते हैं । व्यवहार में उस ही, दिन संवत्सरारंभ होने से ४९-५०वें दिन. 'संवत्सरी'- महापर्व किया जाता है, इसलिये यह सम्वत्सरी पर्व भी अनादि से है, अनन्तः काल तक रहेगा।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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