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________________ ६० ] ॐ जैन-तत्व प्रकाश आवास हैं, जिनमें वे सपरिवार रहते हैं। इसी जगह १२५०० योजन का गौतम द्वीप है, जिसमें लवणसमुद्र का स्वामी सुस्थित देव सपरिवार रहता है। इस गौतम द्वीप के चारों ओर ८८॥ योजन से कुछ अधिक ऊँचे चन्द्रसूर्य के द्वीप हैं । वहाँ ज्योतिषी देव क्रीड़ा करते हैं। लवणसमुद्र के चारों ओर गोलाकार ४००००० योजन विस्तार वाला धातकीखएड द्वीप हैं। यह द्वीप लवणसमुद्र को घेरे हुए है । इसके मध्य में ५०० योजन ऊँचे, धातकीखण्ड जितने लम्बे, पूर्व और पश्चिम द्वार से निकले दो इक्षकार पर्वत हैं। उनसे धातकीखण्डद्वीप के पूर्वधातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड-ऐसे दो विभाग हो गये हैं। दोनों विभागों में एक-एक मेरुपर्वत है। प्रत्येक मेरु चौरासी-चौरासी हजार योजन ऊँचा है और भूमि पर ६४००० योजन चौड़ा है। ऊपर चल कर नन्दन वन में १२५० योजन चौड़ा है, सौमनस वन में ३८०० योजन चौड़ा है और शिखर पर १००० योजन चौड़ा है। पूर्वधातकीखण्ड द्वीप के मध्य में जो मेरु है, उसका नाम 'विजय' मेरु है और पश्चिमधातकीखण्ड में जो मेरु है, उसका नाम 'अचल' मेरु है । समभूमि पर भद्रशाल वन है। वहाँ से ५०० योजन ऊपर नन्दन वन है और वहाँ से ५५५०० योजन ऊपर सौमनस वन है और इससे भी २८००० योजन ऊपर पाण्डुक वन है। यहाँ धातकीखण्ड में उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक होता है। धातकीखएड के दोनों विभागों में से प्रत्येक विभाग में जम्बूद्वीप में कहे अनुसार ही क्षेत्र, पर्वत, द्रह, नदी, महाविदेह क्षेत्र आदि सब पदार्थ हैं । इस प्रकार धातकीखण्ड में जम्बूद्वीप से दुगुने सब शाश्वत पदार्थ हैं। धातकीखण्ड द्वीप में जम्बूद्वीप के समान जगती (कोट) और चार द्वार हैं। धातकीखण्ड द्वीप को चारों ओर से घेरे हुए, वलय के आकार का ८०००० योजन का चौड़ा, इस तीर से उस तीर तक एक सरीखा १००० वायव्य कोण में अरुणप्रभ पर्वत है। इन चारों पर्वतों पर रहने वाले अनुवेलन्धर देव कहलाते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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