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सिद्ध भगवान्
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यदि उक्त वस्तुओं की रक्षा करने के लिए प्रातः मध्याह्न और सायंकाल फेरी लगाने निकलते हैं ।
उक्त अभियोग्य श्रेणी से ५ लोजन ऊपर, १० योजन चौड़ा और पर्वत के बराबर लम्बा वैताढ्य पर्वत का शिखर है । यहाँ ६ | योजन ऊँचे अलग-अलग नौ कूट (डूंगरी) हैं । यहाँ महान ऋद्धि के धारक और वैताढ्य पर्वत के स्वामी वैताढ्य गिरिकुमार रहते हैं ।
भरत क्षेत्र के मध्य में वैताढ्य पर्वत श्रा जाने से भरतक्षेत्र के दो भाग हो गये हैं । इन भागों को दक्षिणार्धभरत और उत्तरार्धभरत कहते हैं । उत्तर में भरत क्षेत्र की हद पर चुल्ल हिमवान् पर्वत है । इस पर्वत पर 'पद्म' नामक एक द्रह है । पद्मद्रह के पूर्व द्वार से गङ्गा और पश्चिम द्वार से सिन्धु नामक दो नदियाँ वैतान्यपर्वत के नीचे से निकल कर लवणसमुद्र में मिलती हैं । इस प्रकार वैताढ्यपर्वत और गङ्गा एवं सिन्धु नदी के कारण भरत क्षेत्र के छह विभाग हो गये हैं, जिन्हें 'षट्खएड' कहते हैं ।
जम्बूद्वीप के पूर्व दिशा के विजय द्वार के नीचे के नाले से लवणसमुद्र का पानी भरत क्षेत्र में आता है। इस कारण नौ योजन विस्तार वाली खाड़ी है। उसके तट पर तीन देव स्थान हैं - ( १ ) पूर्व में मागध (२) मध्य में वरदान और (३) दक्षिण में प्रभास । तीर पर होने से इन्हें तीर्थ कहते हैं ।
पश्चिम में खाड़ी, पूर्व में वैताढ्यपर्वत, दक्षिण में गङ्गा नदी और उत्तर में सिन्धु नदी - इन चारों के मध्य बीच के स्थल में ११४ (११ कला ) के अन्तर से १२ योजन लम्बी और ६ योजन चौड़ी अयोध्या नगरी है।
वैताढ्यपर्वत से उत्तर में, चुल्लहिमवन्त पर्वत से दक्षिण में, गङ्गा नदी से पूर्व में और सिन्धु नदी से पश्चिम में, बीचोंबीच १२ योजन ऊँचा, गोलाकार ऋषभकूट नामक पर्वत है । जब चक्रवर्त्ती महाराज भरत क्षेत्र के छहों खण्डों
* पर्वत पर फिरने योग्य खुली जगह को श्रेणी कहते हैं ।
* वृद्ध पुरुषों का कथन है कि अयोध्या नगरी की जगह, जमीन में शाश्वत वज्रमय स्वस्तिक का चिह्न अङ्कित है । कर्मभूमियों की उत्पत्ति के समय इन्द्र महाराज उस स्थान पर नगर बसाते हैं ।