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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 76 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
तीर्थ का फल तो कालान्तर में फलता है, पर साधु की वंदना का फल तुरंत फलता हैं हे प्रभु! मैं संत बनूँ या न बनूँ, परंतु संत -स्वभाव की वंदना अवश्य करूँ लोक जहाँ जनरंजन में लीन होता है, वहाँ संत आत्मरंजन में लीन होता हैं अहो! असंतों का मनोरंजन होता है, तो संतों का आत्मरंजन होता हैं भो ज्ञानी! वह ही संत -चरण हैं जिन्हें देखकर असंतों के मन में भी एक क्षण के लिए संत बनने की भावना आ जाएं निर्विकारी बनना चाहते हो तो इन आँखों से कहना, हे निर्मल नेत्र! जब भी देखो तो साधु को साधुरूप में ही देखना, क्योंकि जब भी हम संत -चरणों में निहारते हैं, तो तपोवृत्ति ही मिलती हैं
भो ज्ञानी! तुम सौभाग्यशाली हों देखो उन विद्वानों को, तड़प-तड़प के चले गएं कब मिलिहें वे गुरु ? "ते गुरु मेरे उर बसो", क्योंकि ऐसा मध्यकाल आया कि जिस युग में निग्रंथ -दशा लुप्त हो रही थीं उस समय के आचार्य महाराज शांतिसागर, आदिसागर भगवन्तों को नमन कर लेना कि, हे प्रभु! आपने हमारी सुप्त गुरु व्यवस्था को जागृत किया है और धन्य हैं भगवन्त कुंदकुंद स्वामी, जिन्होंने संत -स्वरूप का व्याख्यान किया और परमवंदनीय भगवन् समन्तभद्र स्वामी, जिन्होंने जिनवाणी को भी कसौटी पर कस कर नमस्कार कियां उन्होंने कहा कि मैं सब देवों को नहीं मानता; जिसमें क्षुधा आदि अठारह दोष नहीं हैं वह ही मेरा वंदनीय आप्त हैं जिसमें कुपथ का वर्णन किया हो उसे आगम या परमागम संज्ञा मत दे देनां जो आप्त के द्वारा कथित हो और जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता, पूर्वापर- विरोध से रहित हों अहो! जिनदेशना पूर्वापर- विरोध से रहित होती है, कुपथ का खण्डन करनेवाली होती है, उसका नाम वीतराग द्वादशांङ्ग- वाणी हैं जो विषय-कषाय से रहित हैं, आरंभ-परिग्रह से रहित हैं, ज्ञान-ध्यान-तप में लीन हैं ऐसे निग्रंथ तपोधन ही हमारे परम आराधनीय/वंदनीय, मंगलोत्तम, शरणभूत हैं वे ही हमारे निग्रंथ गुरु हैं
भो आत्मन्! हमें व्यक्ति विशेष से प्रयोजन नहीं "णमो लोए सव्वसाहूणं" लोक के संपूर्ण साधुओं को नमस्कार हों जो अंदर व बाहर से निग्रंथ हैं, जो दर्शन-ज्ञान से संलग्न है, जो चारित्र मोक्ष का मार्ग है ऐसे चारित्र की सिद्धि कर रहे हैं, वे ही साधु हैं, वे ही मेरे द्वारा पूज्यनीय-वंदनीय हैं,ऐसा आचार्य भगवन् नेमिचंद्र स्वामी ने 'द्रव्यसंग्रह' ग्रंथ में लिखा हैं लोक में बहुत से गुरु होते हैं-विद्या -गुरु, शास्त्र- गुरु, शस्त्र- गुरु परंतु आस्था के गुरु तो निग्रंथ ही होते हैं मोक्षमार्ग के गुरु तो निग्रंथ ही हैं बाकी विधाओं के गुरु का आप बहुमान रखें, सम्मान रखें, कोई परेशानी नहीं है; परंतु इतना ध्यान रखना कि सिखाने वाले सिखाने तक ही गुरू हैं, पर वे सब पंच- परम- गुरु की संज्ञा के गुरू नहीं हैं यदि इससे तुम आगे बढ़ गए तो ग्रहीत-मिथ्यात्व है, क्योंकि सत्य का निरूपण तो असत्यभाषी जीव भी कर सकता है, मद्यपायी भी कर सकता है, पर उसका सत्य, सत्य नहीं कहलाता हैं यदि कोई सग्रंथ जिनवाणी का व्याख्यान करता है तो उसमें निग्रंथ- वाणी जोड़ देता है क्योंकि उस बेचारे को मालूम रहता है कि मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ मेरा शब्द हितोपदेशी नहीं हो सकता हैं ध्यान रखना, यदि एक छोटा सा बालक भी जिनवाणी को कहता है तो उसकी
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