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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 577 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"ग्रंथकर्ता की महानता" कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मां परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो नन्दति सदैव 224
अन्वयार्थ : कृतकृत्यः = कृतकृत्य (कर्तव्य से परिपूर्ण) सकलविषयविषयात्मा =समस्त पदार्थ हैं विषयभूत जिनके अर्थात् सब पदार्थों के ज्ञातां परमानन्दनिमग्नः = विषयानंद से रहित ज्ञानानंद में अतिशय मग्न ज्ञानमयः परमात्मा = ज्ञानमय ज्योतिरूप मुक्तात्मा परमपदे = सबसे ऊपर मोक्षपद में सदैव नन्दति निरन्तर ही आनंदरूप स्थित हैं
एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेणं अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी 225
अन्वयार्थ : मन्थाननेत्रम् = मथानी की रस्सी को खींचने वाली गोपी इव =ग्वालिनी की तरहं जैनी नीतिः = जिनेन्द्रदेव की स्याद्वाद नीति या निश्चय- व्यवहाररूप नीतिं वस्तुतत्त्वम् = वस्तु के स्वरूप कों एकेन आकर्षन्ती = एक (सम्यग्दर्शन) से अपनी ओर खींचती हैं इतरेण = दूसरे अर्थात् सम्यग्ज्ञान में श्लथयन्ती = शिथिल करती है, और अन्तेन = अन्तिम अर्थात् सम्यकचारित्र से सिद्धरूप कार्य के उत्पन्न करने में जयति = सबके ऊपर वर्तती हैं
वर्णैः कृतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि वाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः 226
अन्वयार्थ : चित्रैः वर्णैः कृतानि पदानि = नाना प्रकार के अक्षरों से किये हुए पद हैं दैः कृतानि वाक्यानि = पदों से बनाये गये वाक्य हैं तु वाक्यैः = और उन वाक्यों से पुनः इदं पवित्रं = पश्चात् यह पवित्र/पूज्यं शास्त्रम् कृतं = शास्त्र बनाया गया हैं अस्माभिः न (किमपि कृत) = हमने कुछ भी नहीं कियां
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