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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 574 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
अहो ज्ञानी! पाप को पाप कहनेवाले पंडित संसार में अनंत हैं, लेकिन पुण्य को पाप कहनेवाले पंडित संसार में अँगुलियों पर गिनने लायक हैं अहो! आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी तो पुण्य को अपराध कह रहे हैं और आचार्य योगीन्दु स्वामी पाप को कह रहे हैं अब आचार्य कुंदकुंदस्वामी को देखें प्रभु! पुण्य के बारे में आपके क्या विचार हैं? 'समयसार के पुण्य-पाप अधिकार में आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने कहा है- अहो ज्ञानियो ! विश्व के प्राणी अशुभकर्म को तो कुशील कहते हैं, लेकिन शुभकर्म को सुशील कैसे कहूँ? वह तो संसार में भटका रहा हैं
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदिं 152 (स.सा.)
अब आपको यह चिंता लग गई कि महाराजश्री! पुण्य परंपरा से मोक्ष का कारण है कि नहीं? पुण्य के दो भेद कर दिए एक सम्यकदृष्टि का पुण्य दूसरा मिथ्यादृष्टि का पुण्य अर्थात् एक प्रशस्त पुण्य दूसरा अप्रशस्त पुण्यं अपराध शब्द को लोग वास्तव में अपराध मानकर न बैठ जाएँ अब देखो, मोक्ष का कारण पुण्य तो नहीं है, पर एक कार्य की सिद्धि एक ही कारण से नहीं होतीं कारण कार्य का हेतु बन भी सकता है और नहीं भी बन सकता हैं लेकिन कारण तो जो होगा वह नियम से कार्य को ही कराएगां
भो ज्ञानीं यहाँ तो पुण्य को कहीं पाप कहा, कहीं अपराध कहा और कहीं कुशील कहां लेकिन मंद कषाय में यदि धर्म की साधना की, तो आपको स्वर्ग भेज दिया और कषाय की तीव्रता में अशुभ व्रत किये तो आपको नरक भेज दियां परंतु दोनों संसारी ही हों आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने पुण्य को कुशील इसीलिए कहा कि शील का अर्थ होता है स्वभावं जो वस्तु का स्वभाव है, वही शील हैं यहाँ शील से स्वभाव ग्रहण करना आत्मा का स्वभाव चिद्रूप चैतन्य भगवत अवस्था हैं उस भगवत अवस्था से जो भटका दे, उसका नाम कुशील हैं इसी प्रकार शुभ-कर्म देव - पर्याय को दिला रहा है, इसीलिए कुशील हैं जो आत्मा का पतन कराए, उसका नाम पाप हैं पुण्य के योग से देवपर्याय को प्राप्त कर लिया, पर जब आयु कर्म क्षीण हुआ तो माला मुरझाने लगीं अतः छह महीने पहले से रो-रोकर एक इंदिय पर्याय को प्राप्त हुआ अहो! इस पुण्य की महिमा तो देखो, इसने तो यह पतन करा दिया कि पुनः नीचे पटक दियां इसीलिए जो पतन कराए, वह पाप है और जो पवित्र कराए, उसका नाम पुण्य हैं अतः रत्नत्रय धर्म पुण्य हैं यह पुण्य मोक्ष तो नहीं दे पाएगा, क्योंकि पुण्य भी एक कर्म है और जहाँ कर्म है, वहाँ मोक्ष नहीं हैं संपूर्ण कर्मों के अभाव हो जाने का नाम मोक्ष हैं
भो ज्ञानी! श्रावकधर्म परंपरा से मोक्षमार्ग है, व मुनि-धर्म साक्षात् मोक्षमार्ग है, लेकिन दोनों में पुण्यास्रव चल रहा हैं बिना पुण्य के मनुष्य पर्याय नहीं मिलती और बिना पुण्य के चारित्र धारण नहीं होतें ध्यान रखना,
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