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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 57 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
सिद्धों की वंदना करते हो, उन अनंत सिद्धों की हिंसा कैसे करोगे? इसलिए तुम वनस्पति का सेवन मत करों अहो! जो भविष्य में बनने वाले मेरे वंदनीय भगवान हैं, उनका भक्षण मैं कैसे करूँ ? प्रभु! मुझे प्रकृति ने बहुत दिया हैं जीने के लिए बहुत खाने की आवश्यकता नहीं हैं आचार्य सन्मतिसागर जी महाराज ने दो साल से सिर्फ गन्नारस और छाछ लिया हैं अब गन्ने का रस भी छोड़ दिया, मात्र छाछ ले रहे हैं वह भी रोज नहीं ले रहे, आठ दिन के अभी उपवास किये हैं वह जीव जी रहा है कि नहीं? इससे लगता है कि वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है तो छाछ भी बल दे देती है, अन्यथा दूध-मलाई भी तुम्हें सुखा देती हैं साध्साधना के क्षेत्र में आचार्य सन्मति सागर (मासोपवासी) का दुबला-पतला शरीर है फिर भी विहार भी कर लेते हैं, प्रवचन भी रोज देते हैं और घंटों-घंटों शीर्षासन से सामायिक करते हैं इसलिए यह भ्रम छोड़ देना कि भोजन से ही बल मिलता हैं उपादान-शक्ति तुम्हारे आत्मा की होती हैं आत्मबल नहीं है, तो रक्त का पानी बनता हैं डॉक्टर कहेगा-हार्मोन्स की कमी है, मगर कर्मसिद्धांत वीतरागविज्ञान कहेगा कि तेरे कर्मो की कमी हैं तेरा वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम मंद पड़ चुका हैं यही तेरे लिए शांति का हेतु बनेगां वे हार्मोन्स तो तुम जुटाते रहो, पर जुटेंगें नहीं अरे! अनंत जीवों को खाकर तुम इस पुद्गल को मत गिराओ, नियम से राख होगां विश्वास न हो तो श्मशानघाट को देखकर आ जाओं यही तत्त्व-देशना हैं
भो ज्ञानी! जिस दिन तत्त्व ने तत्त्व को समझ लिया, उसे परमतत्त्व बनने में देर नहीं लगेगी आप स्वयं एक तत्त्व हो और शब्द के श्रद्धान में डूबे हों जिस दिन तत्त्व-श्रद्धान जम जायेगा, उस दिन आप किसी से 'तू' कहके नहीं बोलोगें कहोगे कि मैं किसी सिद्ध-तत्त्व की अविनय नहीं करना चाहतां फिर कौन भाई- भाई लड़ेगा? कौन सास-बहू लड़ेगी? देखना घर की क्या व्यवस्था बनती है ? जो मात्र द्रव्यानुयोग को ही समझ रहा है और शेष तीन अनुयोगों की अविनय कर रहा है, वह घोर मिथ्यादृष्टि हैं जिनवाणी कह रही है कि मेरे समझाने की चार शैलियाँ हैं मैं किसी को अविनय नहीं सिखा रहीं अनुयोगों का ज्ञाता हर शैली (दृष्टि) से तत्त्व को समझेगां
भो ज्ञानी! जहाँ गजराज जैसा मृतक तिथंच पड़ा हो, जिसकी सडान्ध इतनी तीव्र हो कि एक-दो धूपबत्ती/अगरबत्ती की सुगंध कुछ नहीं कर पायेगी इसी प्रकार जिस जीव के अंतरंग में मिथ्यात्व का सड़ा तिथंच पड़ा हुआ है, उसकी दुर्गंध इतनी विशाल है कि, भो ज्ञानी! तुम्हारी छोटी-मोटी बातें उसको प्रभावित नहीं कर पा रही हैं उसके लिए साक्षात् जिनेन्द्रदेशना की अगरबत्ती ही चाहिए और वह भी तभी काम करेगी जब हड्डी पसलियों को वहाँ से हटाया जायेगां जब तक मिथ्यात्व की प्रकृतियाँ नहीं हट रही हैं, तब तक सम्यक की सुगंध उस घर में आने वाली नहीं हैं मिथ्यात्व की प्रवृतियों को धीरे से निकाल दों जैसे घर की सफाई कर लेते हो, वैसे निज घर की सफाई क्यों नहीं कर रहे हो? ईंट-चूने के घर की सफाई के लिए आप खुद स्वामी बन जाते हो और निज आत्म घर की सफाई के लिए आप आचार्य भगवन्त और तीर्थंकरों की
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