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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 566 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भो ज्ञानी! बारह भावना पढ़ना और बारह भावना भाना, इनमें महान अंतर हैं भानेवाला तो एक में एक घंटा लगा देगा और पढ़ने वाला दो मिनिट में बारह पढ़ लेगां एक व्यक्ति नौ बार 'णमोकार मंत्र पढ़ता है, उसको समय लगता हैं कभी-कभी पढ़ने वाला यहीं खड़ा रह गया, पूरी सभा चली गईं अतः जितनी तल्लीनता से भावना करोगे, समय तो लगेगा, क्योंकि भावनाएँ शाब्दिक नहीं हैं, वे मानसिक हैं पाठ शाब्दिक हैं, भावनाएं आत्मिक हैं, जो अंतःकरण से होती हैं जाप शब्दों में चलता है, इसीलिए जाप और ध्यान में अंतर हैं जाप में जपा जाता है, ध्यान में ध्याया जाता हैं जाप में जितनी निर्जरा होती है, उससे असंख्यात गुनी निर्जरा ध्यान से होती हैं पाठ में जितनी निर्जरा होती है, भावनाओं में उससे असंख्यात गुनी निर्जरा होती हैं इसीलिए तीर्थंकर-प्रकृति के बंध का हेतु सोलहकरण भावना का पाठ करना नहीं, सोलह करण भावना को भाना हैं परंतु जिसे आज तक भाया है, उसे नहीं भानां जिसे आज तक नहीं भाया, उसे भाने का नाम भावना हैं आज तक हमने मिथ्यात्व को भाया है, उसे अब मत भाओं सम्यक्त्व को नहीं भाया, उसे भाओं सोलहकारण-भावना प्रत्येक जीव के इसलिए घटित नहीं हो रही, क्योंकि ऐसे भाव नहीं होतें सोलहकारण भावनाओं को भानेवाला प्रबल पुण्य का बंध करता हैं सोलहकारण भावना वही भा पाता है जिसको पुण्य का उदय होता हैं पाप के उदय में विचार ही नहीं आतें पर्युषण पर्व निकल जाते हैं परन्तु पता नहीं चलता कि पर्व चल रहें हैं या कि दीपावली का दिनं भो ज्ञानी! बहुत सारे कार्य हमारी निर्जरा के हेतु बन सकते हैं, लेकिन विवेक के अभाव में बंध का कारण बन जाते हैं ध्यान रखना, जो (नय की अपेक्षा से) एकांत को लेकर बैठ जाता है, उसे मिथ्यात्व अवस्था में तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होतां मिथ्यादृष्टि जीव द्वारा बत्तीस उपवास कर लेने से तो सोलहकारण भावना नहीं हुईं सोलहकारण भावनाओं को सम्यकदृष्टि ही भाता हैं आहारक-शरीर भी सामान्य मुनियों के नहीं निकलतां जो मुनिराज विशेष तपस्वी, वर्द्धमान चारित्रवान होते हैं, उन्हें चतुर्थ काल में ही निकलता हैं जब उनके मन में तीव्र विशुद्धि उत्पन्न होती है कि मैं जिस क्षेत्र में जा रहा हूँ उस क्षेत्र में कोई असंयम के हेतु तो नहीं हैं, कषाय के हेतु तो नहीं हैं, जब समझ में नहीं आता है, तो पुतला निकल कर उस स्थान को देख कर आ जाता हैं यह संयम के प्रति तीव्र अनुराग हैं अथवा कहीं पंचकल्याणक हो रहे हैं और मुनिराज जहाँ विराजे हैं, तीव्र अनुराग उत्पन्न हुआ कि भगवान् के कल्याणक कैसे होते हैं? तो उस समय पुतला निकलेगां विशेषकर के दीक्षाकल्याणक के दिन निकलता हैं लौकांतिक देव भी चार कल्याणकों में नहीं आतें एक मात्र दीक्षाकल्याणक में वैराग्य को देखने आते हैं यहाँ तक कि कोई कृत्रिम या अकृत्रिम विशाल जिनमंदिर के दर्शन करने की भावना उत्पन्न हुई उस समय आहारक शरीर निकलता हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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