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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 564 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
मानकर पूजता हैं मिथ्यादृष्टि देव अरिहंत-भगवान् की पूजा कुलदेवता मानकर करता है और सम्यक्दृष्टि जीव भगवान को भगवान मानकर चलता हैं
भो ज्ञानी! एक समय के परिणामों में विकल्पता का आना तेरे चारित्र-गुण से प्रतित होने का द्योतक है, क्योंकि काषायिक-भाव चारित्र और सम्यक्त्व दोनों का घात करता हैं ध्यान रखना, जिस जिनालय में आप रोज वंदना करने जाते थे और वहाँ आपके मन की इच्छा पूरी नहीं हुई, तो आप कहने लगे कि अब इस मंदिर में पूजा करने नहीं आनां अहो! तेरी आकांक्षा की पूर्ति नहीं हुई तो दोष ही दोष हैं अहो ज्ञानी! जिस प्रकार अष्टद्रव्य की थाली लगाकर जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में पहुँचता है, ऐसे अष्टांग सम्यक्त्व के द्रव्य की थाली लगाकर जाया करों परंतु जिसके आठ अंगों कि थाली सूख गई, भो ज्ञानी! उसे अष्टम-वसुधा प्राप्त होनेवाली नहीं हैं अष्टद्रव्य की थाली योंही मत लगा कर बैठ जाया करों अरे! अष्ट द्रव्य की थाली अष्ट कों के नाश के लिये लगानां पर आप तो भगवान् को पानी पिलाने आए थे, अक्षत खिलाने आए थे, या कि अपनी भावना प्रकट करने आये थे? बात को समझनां जिनवाणी कहती है कि प्रतिक्षण बंध होता हैं जिस समय मैं अक्षत बोल रहा था, उस समय अधूरा मंत्र पढ़ रहा थां उधर पंडित जी ने आधा मंत्र बोल दिया और आपने जोर से बोल दिया अक्षतं अहो! एक बार छंद भूल जाएँ, लेकिन मंत्र नहीं भूलना, मंत्र से नहीं भटकनां कभी-कभी मन इतना भटक जाता है कि पाठ पर ध्यान नहीं होतां अतः समय तो लगा ही रहे हो, द्रव्य भी लगा रहे हो, परिणाम और लगा दों यदि परिणाम जग गए, तो कल्याण हो गयां क्योंकि भाव से शून्य क्रिया प्रतिफलित नहीं होतीं आप अनन्त बार पूजा कर चुके हो, पर पूज्य नहीं बनें आप चाहो कि मैं एक बार पूज्य बन जाऊँ तो अनन्त बार पुजारी तो बनना ही पड़ेगां
भो ज्ञानी! प्रभु के चरणों में ही तू फटाका फोड़ रहा है, जबकि यह अहिंसास्थली है, यह तीर्थभूमि हैं यहाँ ऐसा मत सोच लेना कि भगवान हमें बचा लेंगें जैनदर्शन स्पष्ट कहता है कि चाहे प्रभु के चरणों में रहना, चाहे स्वयं के चरणों में रहना, जैसा कर्म करोगे, बंध वैसा निश्चित होगां हाँ, रत्नत्रय के सद्भाव में बंध होता है, लेकिन रत्नत्रय से बंध नहीं होता, क्योंकि रत्नत्रय के सद्भाव में प्रशस्त राग है, वह बंध का हेतु है, इसीलिए यह जीव स्वर्ग जाता हैं दसवें गुणस्थान तक राग चलता है, जो संसार में भटका देता हैं तो, मनीषियो! चौथे गुणस्थान का लोभ कहाँ ले जाएगा? सिद्धांत ग्रंथों में लिखा है कि छठवें गुणस्थान में तीव्र लोभ कषाय सताती है कि सब दीक्षा ले लें, सबका कल्याण हो जाए, सबको मैं व्रती बना दूं यह लोभ हैं देखना! तीर्थकर-प्रकृति जिससे बंध रही है, वह भी लोभ हैं विश्व के प्राणीमात्र का कल्याण हो जाए, लेकिन वह लोभ ऐसा लोभ नहीं है कि नरक ले जाएं वह लोभ तीव्र पुण्य-बंध का हेतु रखता हैं जिसे सिद्धांत की भाषा में लोभ कहा जा रहा है, वही आप सहज भाषा में कहोगे कि यह प्रशस्त राग है, यह करुणा भाव है, संक्लेशतम् दया हैं उस दया के प्रभाव से तीर्थंकर-प्रकृति का बंध होता हैं
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