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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 559 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
कि जहाँ तुमने जैसा परिणाम किया वैसा उदय में आयां इस आत्म-भूमि में जैसा बोओगे, जो दाना डालोगे, वही ऊगता हैं जैसा परिणाम करोगे, उसी कर्म की फसल सामने आएगीं सत्य यह है कि जीव अपने भाव करके बंध सुनिश्चित कर लेता हैं द्रव्य सामने आए या न आए, पर चिंतवन करने से द्रव्य का स्वाद तो समझ में आता हैं अहो ज्ञानियो ! तुम समवसरण में पहुँचो या न पहुँचो, लेकिन यदि समवसरण की आराधना कर रहे हो, तो समवसरण का भाव तो आ रहा है न ?
भो ज्ञानी ! तीर्थंकर जिनेन्द्र का शासन है, यह सर्वज्ञ की वाणी है, जिनको अवगाहन करना हो तो कर लीजिए, अन्यथा अभागे जीव को शीतल जल की सुवास आती कहाँ है? जिसका पुण्य क्षीण हो चुका है, वह चंद्रमा पर धूल देखता है और जिसका पुण्य निर्मल होता है, वह पृथ्वी को चाँद और सितारों जैसा देखता हैं कर्म की बहुत विचित्र प्रकृति है कि एक तो जीव का सुकृत्य समाप्त हो रहा है, दुष्कृत्य की वृद्धि हो रही है और एक जीव का सुकृत्य बढ़ रहा है, दुष्कृत्य की हानि हो रही हैं "षट्गुण हानि वृद्धि" यह जैनदर्शन का गहनतम् सिद्धांत हैं दस योगी एक साथ ध्यान कर रहे हैं और दस में से पाँच सिद्ध बनकर चले गए, क्योंकि अपूर्व - अपूर्वकरण परिणाम चल रहे थे और कर्म की प्रकृति अपने आप में शुष्क और क्षीण होती चली जा रही थीं शत्रु की पराजय कब होती है? आपके वीर्य की वृद्धि हो और शत्रु के वीर्य की हानि हो, बस विजयश्री तुम्हारे साथ हैं इस प्रकार कर्म की क्षीणता और आत्मविशुद्धि की उत्कृष्टता हो तो मोक्ष तेरी मुट्ठी में हैं कर्म की तीव्रता से जीव नरक जाता हैं पुण्य और पाप की मध्य अवस्था मनुष्य आयु का आस्रव कराने वाली हैं पाप की तीव्रता से तिर्यंच और नरकगति होती है और कर्मों की पूर्ण क्षीणता से सिद्धत्व की प्राप्ति होती हैं यह अरिहंत अवस्था है, क्षीणाक्षीण में ही समवसरण लगता हैं पूर्ण क्षीण का कोई समवसरण नहीं होता परंतु ध्यान रखना, क्षीणाक्षीण से रहित वही हो सकेगा जो संसार के पापों से छेड़-छाड़ को छोड़ देता हैं जब तक तुम पापों में तल्लीन रहोगे, तब तक क्षीण नहीं हो सकतें उसके लिए चाहिए है दर्शन, बोध, चारित्रं ये जब तक तुम्हारे पास नहीं आ रहे हैं, तब तक कुछ मिलने वाला नहीं
भो ज्ञानी! जब तक पूर्ण शुष्कता नहीं आती, तब तक दीवार पर चिपकी बालू भी झड़ती नहीं हैं विषयों से शुष्क, भोगों से शुष्क और जन से शुष्क, परिजन से शुष्क, अंत में जिसमें तुम विराजे हो उस देह से भी उदासीन हों जब तक ऐसी श्रद्धा नहीं बनाओगे, तब तक सम्यक्त्व नहीं, सम्यक्ज्ञान नहीं, सम्यक्चारित्र नहीं अहो मुमुक्षु आत्मन्! मोक्ष का पुरुषार्थ नहीं तो मुमुक्षु-भाव कैसा ? 'राजवार्तिक' ग्रंथ में लिखा है कि इंद्रियों को जो दोष देता है, वह महापापी है, वह अज्ञानी हैं इंद्रियाँ कभी नहीं कहती हैं कि तुम भोगों में लगाओं ध्यान रखना, कहने वाला कोई दूसरा ही हैं भोग इंद्रियाँ नहीं भोगती हैं, भोगने वाला कोई दूसरा हैं। यदि इंद्रियों से संसार होता, तो पाँच इंद्रियों के बिना मोक्ष भी नहीं होतां चक्षुइंद्रिय आपको जिनवाणी पढ़ने को, जिनेन्द्र की वंदना करने को मिली हैं कर्ण-इंद्रिय आपको जिनवाणी सुनने को मिली हैं स्पर्शन इंद्रिय
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