________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 556 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
दिया था-हे जनक! हे जननी! प्राण श्रेष्ठ नहीं, प्रण श्रेष्ठ हैं यदि राम प्रण छोड़ देते, तो दशरथ के राम तो बने रहते, पर मर्यादा- पुरुषोत्तम नहीं कहलातें राम यदि यह सोचते कि माँ कैकई मेरे राज्य को छीन रही है, तो आप ही बताओ, क्या भाव आते? राम ने अनेकांत से सोचा कि माँ कैकई मेरे राज्य को कहाँ छीन रही है? अहो! मेरे छोटे भैया को राजा बनाना चाह रही है, यह तो बहुत अच्छा होगां यदि मैं अयोध्या में रहूँगा तो बड़े होने के कारण लोग मेरी ओर देखेंगे, मेरे भैया को राजा नहीं मान पाएँगें अतः वह स्वतः जंगल चले गए अनेकांत की दृष्टि को देखना, परिणाम खराब नहीं हुए यहाँ भरत की दृष्टि को देखनां यदि आप होते तो मुस्करा जाते कि मेरी माँ ने बहुत अच्छा किया कि मेरे लिए राज्य माँग लियां भरत कह रहे हैं- मैं अपने भैया को बुलाने जा रहा हूँ अहो माँ! तुमने राज्य माँग लियां भरत को राज्य भी मिल गया, लेकिन ध्यान रखो, राम का प्रबल पुण्य का योग था कि जंगल में भी वह राजा बनकर ही रहें इसीलिए, जीवन में यह ध्यान रखना कि मेरे पुण्य का साम्राज्य खाली न होने पाए, उसके लिए एक कटोरा आपको लेकर ही चलना पड़ेगां
भो ज्ञानी! आज लोक में, घर में, परिवार में जो विवाद होते हैं, मात्र अनेकांत दृष्टि के अभाव में ही होते हैं जिस दिन अनेकांत दृष्टि आ जायेगी, उस दिन आप किसी को कभी अंगुली नहीं दिखाओगें जब तुम को अंहकार आने लग जाये कि मैं बहुत-बहुत श्रेष्ठ हूँ, उस समय भगवान् को देखना और जब तुमको यह लगे कि मैं बहुत हीन हूँ, हीन भावना में चले जाओ, तो सुबह से उस कुत्ता को देख लेना, जिसके कान से रक्त बह रहा हैं जब तुम यह समझने लग जाओ कि मैं बहुत ज्ञानी हूँ, तो अपने से ऊँचे विद्वानों को देखना
| तम यह समझने लग जाओ कि मैं बहत अज्ञानी है, तो एक अल्पधी जीव को देख लेनां बताओ तुम्हारी दृष्टि कहाँ जाएगी? आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं-शत्रु से भयभीत मत होना, मित्र मे भयभीत मत होना, भो ज्ञानी! उन परिणामों से भयभीत हो जाओ, जिन परिणामों से मित्र तुम्हारा शत्रु बन गयां इसी का नाम सम्यकदर्शन है, जो किसी जीव को शत्रु न बनने दे, किसी जीव को दोषी न बनने दें पर यह ध्यान रखना, परिणाम तुम्हारे ऋजु रहेंगे तो कोई आपको शत्रु की दृष्टि से नहीं देखेगां इसीलिए तीर्थभूमि में, पुण्य भूमि में आकर इतना ही कह देना-प्रभ! मुझे कुछ नहीं चाहिए, आपके दोनों चरण कमल चाहिएं हे जिनदेव! आपके दोनों चरणकमल मेरे हृदय में विराजें और मेरा हृदय आपके चरणों में विराजें बस योग और उपयोग को सँभाल लेना, यही मोक्षमार्ग हैं
मनीषियो! दो-सौ-पंद्रहवीं कारिका में पूरे जैनदर्शन के सिद्धांत को भर दिया है कि श्रद्धा से कर्मबंध नहीं होता, ज्ञान से कर्मबंध नहीं होता है, आचरण से कर्मबंध नहीं होतां योगों से तो प्रदेशबंध होता हैं अतः मन, वचन काय की कुटिल प्रवृत्ति जहाँ होगी, वहीं पाप हैं चाहे आप पाप करो या न करो, पर
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com