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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 522 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
आत्मिक पवित्रता का सोपान “निर्लोभता" हे विज्ञात्मन्! पवित्र भावों का होना ही शौच हैं शूचेर्भावः इति शौचम् मन-वचन-काय की पवित्रता ही आत्मिक पवित्रता की सूचक हैं जब तक त्रियोग की पवित्रता नहीं होगी, तब तक आत्मिक पवित्रता कदापि संभव नहीं उसमें से भी जब तक तेरी मन व वाणी शुद्ध नहीं होगी, तबतक बाह्य पवित्रता कितनी भी बनी रहे, वह शुचिता धर्म में कार्यकारी नहीं बाह्य पवित्रता तक ही हमने विचारा एवं उसी में निमग्न रहे, अन्तः शुद्धि की ओर झाँक कर भी नहीं देखा कि हमारा अंतःकरण शुद्ध है या नहीं? ये कभी सोचा ही नहीं कि मुझसे अपवित्र अन्य कोई पदार्थ भी है? हमारी बाहय दृष्टि जो रही हैं जब मानव के अंदर में बात घर कर जाती है कि तू अच्छूत है और मैं पवित्र हूँ, तो उसी क्षण उसके अंदर अपवित्रता प्रवेश कर जाती हैं धर्म किसी जाति, पंथ, सम्प्रदाय विशेष का नहीं होता है, वह तो प्राणीमात्र का होता हैं धर्म अनेक नहीं होते, वह तो एक है और वह वस्तु का स्वभाव होता हैं अंतरंग परिणामों में किसी के प्रति ग्लानि के भाव न होना, प्राणीमात्र के प्रति सद्भावना के भाव होनां और यह भाव किसी भी जाति के प्राणी के अंदर आ सकते हैं, वहीं धर्मात्मा की पहचान बाहर से करने के साथ उसके अंदर भी देखने की आवश्यकता है कि अंदर कितना मृदु है, जातिपांति की भावना का भूत सवार तो नहीं हैं धर्मात्मा धर्म की भांति जन-जन का होता हैं साधु-संत प्राणिमात्र के हितैषी होते हैं पर देखना ये है कि मात्र चर्चा ही करते हैं कि वास्तव में सब प्राणियों का हित चाहते हैं जो पेड़-पौधों से लेकर चींटी, हाथी, मनुष्य आदि की रक्षा की भावना रखते हैं एवं उनकी रक्षा करते हैं, वास्तव में वही व्यक्ति सच्चा धर्मात्मा हैं जब तक काम-क्रोधादि विभाव-भावों का अभाव नहीं होगा, तब तक शौच-धर्म प्रकट नहीं हो सकतां जिनके अंदर ब्रह्म-भाव है, वे पवित्र हैं
"ब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं न च कामक्रोधादिरतानां जल स्रानादि शौचेपि"
अर्थात् ब्रह्मचारी ही पवित्र होता है, न कि काम-क्रोधादि से युक्त जलस्रान से पवित्रता नहीं आती हैं कहा भी है
"जन्मना जायते शुद्रः, क्रिया द्विज उच्यतें श्रुतेन श्रोतियो ज्ञेयो, ब्रह्मचर्येण ब्राह्यणः"
अर्थात् जन्म से शुद्र होता है, क्रिया से द्विज कहलाता है, श्रुत (शास्त्रों) से श्रोतिय और ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण जानना चाहिएं इस प्रकार शुचिता की चर्चा करते हुए नारायण श्री कृष्ण ने युधिष्ठर से कहा- हे
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