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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 520 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
और बाहर से विनय दृष्टिगोचर हो यह मृदुता नहीं अंदर के साथ बाह्य में नम्र वृति होना ही मृदुता है, अंतरंग की कठोरता नहीं क्योंकि कहा भी है
नमन्-नमन् में फेर है अधिक नमे नादानं
दगाबाज दूना नमे, चीता चोर कमानं '
"
अर्थात् नम्रता होने और दिखाने में बड़ा अंतर हैं यह अपने स्वभाव पर निर्भर करता हैं जैसे- चीता झुककर ही आगे छलांग लगाता हैं चोर झुककर ही छोटी-सी खिड़की से अंदर प्रवेश पाता हैं कमान के झुकने पर ही तीर छोड़ा जाता हैं इसी प्रकार कपटी होता हैं वह आवश्यकता से ज्यादा झुककर अदब करता हैं ऐसी मृदुता, विनम्रता मार्दवधर्म नहीं हैं इसीलिए आचार्यों ने मार्दव (मृदुता) के आगे अलग विशेषण लगाया है, वह है उत्तम विनय वह मंत्र है, जिसके माध्यम से हम आत्मविद्या सीख सकते हैं विद्यायें तो मिल जाती हैं, परन्तु विनय के बिना सारी विद्यायें निष्फल हैं अत से ज्ञानी ! मन-वचन-काय तीनों में विनय की आवश्यकता हैं, मात्र वचन एवं शरीर की विनय, विनय नहीं होती है अर्थात् त्रियोग विनय ही सच्ची विनय हैं त्रियोग से मद् का अभाव ही वास्तविक विनय हैं आचार्य भगवंतों ने मद के आठ भेद कहे हैं, जो कि संसार-भ्रमण के अष्ट द्वार-तुल्य हैं ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप, रूप, शरीर का मद, ये आठ मद मानव के लिए पतन के स्रोत हैं जिन्हें आत्मा को परमात्मा बनाने की आकाँक्षा है, उन्हें विनयपान करना आवश्यक हैं जो मानव विनयशील होता है एवं सभी जीवों की रक्षा करता है, वह संपूर्ण लोक में प्रिय होता है, कभी अमान का पात्र नहीं बनतां यदि राम बनना है तो विनयी बनो, नहीं तो रावण जैसा जीवन होगां राम का सभी जाप करते हैं, रावण का कोई नहीं और तो क्या, रावण का तो कोई नाम भी नहीं लेना चाहतां विनय राम है, मान है रावण का रूपं जो मानी है, वह रावण का वंशज हैं अत: विनयी बनकर श्रेयस सुख को प्राप्त करो, यही मानवता का सार हैं
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ऋजुता ही प्रभुता की जनक'
हे विज्ञात्मन्! आर्जव धर्म तेरी वास्तविकता की ओर संकेत दे रहा है कि जीवन में जो साधना करो, धार्मिक क्रिया करो, वास्तविक करो, निश्चल - वृत्ति से करो, बनावटी नहीं सोचो! वास्तव में क्या हम सच्चे धर्मात्मा है या नहीं? कि मात्र दिखावा (बगुला भक्ति) तो नही कर रहे? दिखावा मात्र को धर्म मत कह देना, क्योंकि दिखाये या प्रदर्शन का नाम धर्म नहीं धर्म वह है जिसमें आत्मदर्शन हों तू जितना प्रदर्शन करता है, क्या उतना आत्मदर्शन तेरे पास है या नहीं? यह प्रश्न अपने आप से पूछ, तब कहीं आर्जव धर्म को समझ
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