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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 513 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
प्रतिक्रमण तो भावप्रतिक्रमण ही हैं भाववंदना ही वंदना हैं भाव-स्तवन ही स्तवन हैं 'तस्य मिच्छामि दुक्कडं बोल दियां (5) अब मैं ऐसा अपराध नहीं करूँगां पापों का त्याग कर देना 'प्रत्याख्यान' हैं (6) शरीर से ममत्व का त्याग कर देना, उपाधियों व व्याधियों से बचकर रहना, 'कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग' हैं यह दो प्रकार का है, अंतरंग और बहिरंग बाहर में उपलब्धियाँ और अंतरंग में कषाय-भाव को जब तक नहीं छोड़ रहे हो, तब तक घोर तपस्या कर लेना, हजारों माला फेर लेना, परंतु यदि परिणामों में कलुषता है तो माला काम में नहीं आती यदि परिणाम निर्मल हैं, तो एक माला ही तुमको मालामाल कर देगी परंतु माला छोड़ मत देना, यह सब आवश्यक हैं भो ज्ञानी! यहाँ स्वाध्याय नाम कहीं नहीं आयां पंडित दौलतराम जी ने 'छहढाला' में आवश्यकों में स्वाध्याय को रखा हैं आचार्य कार्तिकेय स्वामी व आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने स्वाध्याय को आवश्यक में नहीं रखा, परंतु आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने 'प्रत्याख्यान' रखा है, क्योंकि स्वाध्याय का फल प्रत्याख्यान हैं समीचीन रूप से शरीर को दंडित करो, यानि स्थिर करों वचन को, मन को और काम को समीचीन रूप से वश करना-यह तीन गुप्तियाँ हैं आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने रयणसार ग्रंथ में एक बात गजब की लिखी है
पुव्वं जो पंचिंदिय तणु-मण-वचि-हत्थ-पाय-मुँडाओं पच्छा सिर मुंडाओ सिवगदिपहणायगो होदिं 76 रयणसारं
अहो मुमुक्षु आत्माओ! पहले हाथ-पैर का मुंडन करो, फिर मन वचन काय का मंडन करो, इसके बाद तुम सिर का मुंडन करना तो शिव गति के पथिक हो जाओगें हाथ-पैर का मुंडन कराने से तात्पर्य शरीर की इंद्रियों की चंचलता को समाप्त करो और मन, वचन, काय के मुंडन का तात्पर्य मन के, वचन के, शरीर के विकारी भावों का मुंडन करो, त्याग करो, फिर तुम सिर का मुंडन करोगे तो शिव-गति के स्वामी बन जाओगें यदि सिर का मुंडन कर लिया, किंतु हाथ-पैर अर्थात् मन-कषाय का मुंडन हुआ नहीं भी तो ज्ञानी! संसार के पथिक बन जाओगें इसलिए भगवान कह रहे हैं कि जब भी तुम मुनिराज बनना, तो ऐसी ही वृत्ति करना
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