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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 495 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
आचार्य श्री संल्लेखना के पाँच अतिचार का कथन कर रहे हैं आशंसा का अर्थ चाहना हैं जीने की चाह करना जीविताशंसा है और मरने की चार करणाशंसा हैं पहले मित्रों के साथ पांसु क्रीडन आदि नाना प्रकार की क्रीडाएँ की थीं, उनका स्मरण करना मित्रानुराग हैं अनुभव में आये हुये विविध सुखों का पुनः दुःस्मरण करना सुखानुबन्ध हैं भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण चित्त नियम से दिया जाता है वह निदान हैं
भो भव्यात्माओ! आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी ने अलौकिक सूत्र प्रदान किये हैं कि संयम की लीनता ही समरस के झरने का स्रोत हैं जैसे-जैसे जीवन में संयम घटित होता है वैसे-वैसे आनन्द का स्रोत स्फुटित होने लगता हैं 'लघुतत्वस्फोट ग्रंथ में चौबीस तीर्थंकर भगवन् का स्तवन करते हुये अमृतचन्द्र स्वामी लिख रहे हैं- प्रभु! आप प्रकाशक हैं, प्रकाशमान हैं अहो! विश्व ने जिसे प्रकाश माना है, उसे आपने अप्रकाश माना हैं जहाँ सूर्य की किरण नहीं पहुँची, वहाँ आपकी किरण पहुँच चुकी है, इसीलिए आप प्रकाशमान हैं आप शून्य हो, आप अशून्य हों प्रभु! आप शून्य इसलिए हो, क्योंकि आप दोषों से शून्य हो अर्थात् आपके पास अब दोष नहीं बचे हे नाथ! आप बुद्धिहीन हो, क्योंकि बुद्धि होती है मन वाले की, परन्तु आप मन से रहित हो, इसीलिए आप निर्बुद्धि हों
भो ज्ञानी! जहाँ मन है, वहाँ विकल्प हैं एवं विषयों में प्रवृत्ति जा रही हैं मन ही विवेक को शून्य कर रहा है, मन ही तुझे नय से भटका रहा हैं प्रभु! आप राग-द्वेष से शून्य हो, पर चराचर को जानते हो, इसीलिए आप अशून्य हों आचार्य भगवन् समझा रहे हैं कि शून्य का ध्यान करों लेकिन शून्य-स्वभाव से तात्पर्य जड़त्व-दृष्टि नहीं, निज में स्थिरता हैं शून्य से तात्पर्य मूर्खता नहीं, परम् विज्ञस्वरूप की लीनता हैं अतिचार वहाँ होते हैं, जहाँ चित्त है और चित्त की प्रवृत्ति के साथ मोह बैठा होने से जहाँ राग-द्वेष की धारा चल रही है, वहाँ अतिचार सुनिश्चित हैं जिसने अतिचार को मृदु बना दिया, उनके पास अनाचार सुनिश्चित बैठा हुआ हैं देशजिन सम्यकदृष्टि आवक ने मिथ्यात्व को जीत लिया है, जिनत्व का बीज बो दिया हैं उस देश जिन से कहा जा रहा है कि सफल जिनत्व तब प्रकट होगा, जब चारित्र निर्मल होगा, निर्दोष होगां निर्दोष चारित्र तब ही होगा जब अतिचार को पर्वत के रूप में मानना स्वीकार कर दें उत्कृष्ट तो यही है कि आप अतिक्रम व व्यतिक्रम में ही सम्हल जाओं अहो! मन की अशुद्धि अतिक्रम है और विषयों की प्रवृत्ति व्यतिक्रम हैं व्रत का एक देश भंग होना अतिचार है और अतिचार में लीन हो जाना अनाचार हैं जरा-सा दोष भी संयम के माधुर्य को खट्टा कर देता है और सारा का सारा माधुर्य खटाई के रूप में चेहरे पर आता है,
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