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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 493 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 जब करवट बदलते हो, उतने काल में तुम परिणामों की करवटें बदल दों "णमो अरिहंताणं" समाधि के लिये यह एक महामंत्र हैं अन्यथा ध्यान रखना-करवट बदलते समय जो अशुभ विचार तुम्हें आएँगे, वे पता नहीं तुम्हें कहाँ ले जाएँगें करवट बदलते समय ही कहीं आयु-कर्म की करवट बदल गई तो, भो ज्ञानी! गयें अतः, बहुत जागने की आवश्यकता है और जागने का स्थान ही सामायिक हैं सामायिक के काल में अन्यथा वचनों की प्रवृत्ति मत करनां अकेले में बैठे हो तो बैठ-बैठे भी गुनगुनाना हैं आपको मालूम नहीं हैं सामायिक एकांत में ही करना, चौराहे पर कभी मत बैठना क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चौराहे पर बैठकर तुम सामायिक करोगे, तो कभी सामायिक नहीं होगी उन चारों से भिन्न होने का नाम सामायिक हैं रागादिक भाव जो आ रहे हैं, वे कर्मों के सहयोग के कारण हैं 'वरधर्म' नाम के मुनिराज जब चौराहे पर ध्यान में बैठे हुए थे कि अचानक पथिक मुखरित हो गयें अहो! वे सम्राट थे, लेकिन उनके बेटे शासन नहीं सम्हाल पायें पड़ौसी राजा ने इन बेटों पर चढ़ाई कर दी अहो मनीषियों! सब व्यवस्थाएँ पहले से कर देनां दूर चले जाना साधना करने अपरिचित होकर जीनां इसलिए आगम कहता है कि नाम बदलो, काम बदलो, गाँव बदलो; तब भाव बदल पाएँगें देखना, अचानक ही शब्द कान में पड़ गयें परिणाम यह हुआ कि भाव बदल गयें मैं होता तो ऐसे की रचना करतां समवसरण में ही धनुष-बाण की दृष्टि बन गईं भगवान महावीर की वाणी खिरी-हे राजा श्रेणिक! शीघ्र जाओ, तुम अंतर्मुहूर्त में नहीं सम्हाल पाए, तो जीव की हालत बिगड़ जाएगी राजा श्रेणिक पहुँचकर बोले, भो-स्वामिन! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु जोर से चिल्लाता हैं धनुष पर डोरी चढ़ रही थी पर, भो ज्ञानी! पिच्छी पर डोरी चली गई मैं तो मुनि हूँ धिक्कार हो! यह क्या कर रहा हूँ? अहो! एक क्षण में वह योगीराज कैवल्य को प्राप्त हो गयें यह थी भावों की महिमां इसलिए अशुभ वचनों को न कहें भो ज्ञानी! संत बनने के लिए वर्षों लग जाते हैं, असंत बनने में क्षण नहीं लगतां 'मैं संत-स्वभाव का विघात नहीं होने दूंगा, ऐसी भावना मुमुक्षु श्रावक के अंदर गूंजती रहती हैं ऐसे ही कहीं तुम्हें मालूम चल जाए कि अमुक जगह साधक के परिणामों में विकल्पता आ रही है तो हजार काम छोड़कर पहुँच जाना और जोर से बोलना-'भो स्वामिन! नमोस्तं अहो वीतरागी भगवन!' अरे, मैं कहाँ राग में डब रहा हूँ बस तुम्हारी नमोस्तु ने ही समझा दियां ऐसा मत कर देना कि शरीर में पीड़ा हो रही हो, तुमने उनके शरीर की भी सेवा कर दी, उनके भाव शांत हो गये वैयावृत्ति में विवेक का होना अनिवार्य हैं शरीर को दबाना सभी लोग कर सकते हैं, पर भावों को दबाना यह ज्ञानियों का काम हैं भावों की दवा जिनेन्द्र-वचन ही परम-औषधी हैं सामायिक के काल में अशुभ वचन नहीं बोलना, मन को यहाँ-वहाँ नहीं डोलने देना, शरीर को स्थिर रखना सामायिक में पाठ भी करो तो चुटकी नहीं बजानां दाँतों का पीसना, नेत्रों का लाल होना सामायिक का चिह्न नहीं हैं यह रौद्र-ध्यान का चिह्न हैं ____Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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