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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 474 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 रखना, कभी भी धर्म व धर्मात्मा के प्रति ग्लानि-भाव नहीं लाना, यह निर्विचिकित्सा भाव हैं यदि ग्लानि भाव आ रहे हैं, तो ध्यान रखना, सम्यक्त्व में ही दोष हैं मिथ्यात्व की बहुलता को देखकर मन में सोचना व वचनों से कहना कि, भैया! हम वहाँ पर गये थे, अमुक मंदिर बहुत अच्छा था, अच्छी व्यवस्थायें थीं, वह देव भी सत्य हैं-ऐसे विचार मन में लाना, यह 'अन्यदृष्टि संस्तव' हैं यह सम्यकदर्शन के पाँच अतिचार में से एक हैं समझना, चारित्र में दोष लग जाये, तो सम्हलने के बहुत अवसर हैं, परंतु जिसके सम्यक्त्व में ही दोष लग रहे हैं, उसको संभलने का कोई स्थान नहीं हैं तुम्हारा शरीर अस्वस्थ है, तो आप महाव्रती या अणुव्रती नहीं बन पा रहे हों इनमें आपको त्याग करना पड़ता है, परन्तु श्रद्धा करने में तो कुछ भी नहीं करना पड़ता कितना सुन्दर दर्शन है कि श्रद्धा करने में तुम्हें कुछ छोड़ना भी नहीं पड़ रहा हैं घर भी नहीं छोड़ना पड़ रहा है, व्रत भी नहीं लेना पड़ रहा हैं बस, श्रद्धा ही तो करना हैं जीवन में सब कुछ छोड़ देना, पर विश्वास को नहीं छोड़ना और विश्वास तुम्हारा चला गया तो समझ लेना कि तुम्हारे जीवन में कुछ भी तो नहीं बचा पंचमकाल में आप मुनि नहीं बन पारहे हो, त्यागी बन नहीं पा रहे हो, महाव्रती बन नहीं पा रहे हो, पर अन्दर की श्रद्धा को खोखली मत कर देनां क्योंकि न तो तीर्थ काम में आयेंगे, न तीर्थंकर काम में आयेंगें श्रद्धा ही काम में आयेगी, वह ही तीर्थ नजर आयेंगे, वह ही तीर्थकर नजर आयेंगें श्रद्धा है, तो तीर्थ अपने हैं; श्रद्धा है, तो तीर्थकर अपने हैं श्रद्धा नहीं है, तो पत्थर का आकारं पत्थर के, मिट्टी के, ईंट के, चूने के भवन कितने ही खड़े कर लो, तेरा निज भवन में प्रवेश होना संभव नहीं हैं बन्दर एक तिर्यंच है, जिसने एक साधक की चर्या को देखकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर लियां मुनिराज एक पहाड़ी पर ध्यान कर रहे थे, जिनवाणी पढ़ रहे थे एक हिरण आता है और जिनवाणी सुनता है और इतनी तीव्र श्रद्धा के साथ सुना कि वह बाली नाम के मुनिराज हुए उन्होंने श्रद्धापूर्वक माँ जिनवाणी को सुना थां यह बात ध्यान से समझनां जीवन में इतना ध्यान रखना, कि मेरी भाषा से, मेरी वृत्ति से, मेरी चर्या से किसी जीव के भाव खराब न हों दिनभर आप रोगियों के उपचार करना और शाम को जाकर उसको धमकी दे देना, कहना-सुनो, हमारे माध्यम से तुम्हारे सारे रोग दूर हये हैं वह कहेगा-शरीर का रोग जितना ठीक हुआ, वहीं तूने मेरे मन को कितना रोगी कर दिया है? अरे! प्रेम से बोलों गोली का धक्का तो सहन कर लेता है आदमी, लेकिन बोली का धक्का नहीं सहन होता हैं इसलिए गुस्सा आ रही हो तो स्थान छोड़कर चले जाना, लेकिन गुस्से में किसी से कुछ कहना मत, अन्यथा तुम्हारा भी अहित होगा और सामनेवाले का भी अहित होगां अपने जीवन में अपने सम्यक् रत्नत्रय को सम्भालों पाँच अतिचारों से रहित होकर शुद्ध सम्यक्त्व का पालन करों यही प्रशस्त मोक्षमार्ग होगां Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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