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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 46 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 अपनी प्यास बुझा नहीं सकेगां अहो! किनारे तो किनारे हैं, किनारे धारा नहीं हैं किनारों के मध्य में जो बह रही है, उसका नाम धारा हैं इसलिए निश्चयनय व व्यवहारनय तो दो किनारे हैं उन दोनों के बीच जो रत्नत्रय धर्म है वह तेरा नीर है, वह धारा हैं इसलिए, आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि दोनों नयों को समझो तथा जानने व समझने के उपरांत, दोनों के प्रति मध्यस्थ हो जाओं मनीषियो! भगवान अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि व्यवहार और निश्चय नय दोनों नय हैं (यः प्रबुध्य) जो तत्त्व को यथार्थ जान लेता है (भवति मध्यस्थः) वह मध्यस्थ हो जाता हैं किसी जीव ने कहा-आत्मा शुद्ध-बुद्ध हैं, कोई दिक्कत नहीं हैं किसी ने कहा-आत्मा संसारी हैं कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि वह जैन है, तत्त्व को जानता है, लड़े क्यों? जो कह रहा है कि आत्मा त्रैकालिक शुद्ध है, वह शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय से कह रहा हैं एक आत्मा को संसारी कह रहा है, कोई दिक्कत नहीं हैं संसार अवस्था में अशुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय से कह रहा हैं पर्यायार्थिक-दृष्टि से तो आत्मा अशुद्ध ही हैं विवाद वह करे जो अज्ञानी हो, जिसने तत्त्व को जान लिया है, वह कभी झगड़ेगा नहीं जिनवाणी में ज्ञानी उसे कहा है, जो दोनों नयों को जान कर मध्यस्थ हो जाता हैं (प्राप्नोति देशनायाः) वही देशना को प्राप्त करता हैं, ऐसा ही शिष्य संपूर्ण विद्या के फल को प्राप्त करता हैं जो जीव निश्चय व व्यवहार नय को समझ कर अपनी दृष्टि को मध्यस्थ कर लेता है, वही जीव तत्त्वज्ञानी हैं भो ज्ञानी! जिसने नयपक्षों को लेकर अपने आपको कलुषित भावों से युक्त किया है, उससे बड़ा अल्पज्ञ संसार में दूसरा कोई नहीं हैं आचार्य ब्रह्मदेव सूरि ने 'वृहद् द्रव्यसंग्रह' की टीका में लिखा-वही ज्ञान तत्त्वज्ञान है जिसमें सत्य के प्रति शांत- स्वभाव का उद्भव हों वही तत्त्वज्ञान है जिसमें बिखरे हृदय मिलकर एक हो जायें; जिसमें कलुषता की आंधी शमन को प्राप्त हो जाये, जिसे समझ कर स्वयं में स्वयं का सुख (आनंद) प्रकट हो जायें जिस तत्त्वचर्चा से विसंवाद हो, उसे आचार्य बह्मदेव सूरि ने तत्त्वचर्चा नहीं कहां क्योंकि विसवांद से कषाय का उद्भव होता है, कषायों से कर्म का आस्रव होता है और कर्म आस्रव से संसार की वृद्धि होती हैं हम माँ जिनवाणी के पास पहुँच कर संसार वृद्धि नहीं करना चाहते, हम तो संसारबंधन की लिये यहाँ आए हैं, और जो जिनवाणी को सुनकर भी कषाय भाव से परित हो रहा है उसे जिनवाणी का ज्ञानी मत कहनां भो ज्ञानी! अज्ञानी बनकर रह लेना, पर अधूरे ज्ञानी बनकर रहने का कभी प्रयास मत करना, क्योंकि अधूरा ज्ञान अज्ञानता से ज्यादा खतरनाक होता हैं जब तक सर्वज्ञता की सिद्धि नहीं होती, तब तक अरिहंत तीर्थकर भी मुनि अवस्था में मौन रहते हैं, क्योंकि जिस विद्या को मैंने समझा ही नहीं है, उस विद्या को मैं दूसरे को क्या बता सकूँगा? जिस दिन सत्य का सूर्य उदित हो जाता है, उस दिन सर्वांग से व्याख्यान प्रारंभ हो जाता हैं आज अपने पास सर्वज्ञ नहीं हैं, परंतु सर्वज्ञ की वाणी तो अपने पास मौजूद हैं इसलिए, आप Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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