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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 454 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 है, अमृत झर जाता है, 'मानसिक आहार' कहलाता हैं अंडों के अंदर पक्षियों का जो आहार होता है, सेते हैं, वह 'ओज आहार' कहलाता हैं केवली भगवान का जो आहार होता है वह 'नो कर्म' आहार हैं भो ज्ञानी! आप तेल को लेप आहार कहते हैं, यह आगम के पूर्ण विरुद्ध भाषण करते हो, एक-इंद्रिय जीव का जो आहार होता हैं, उसका नाम 'लेप-आहार' हैं वृक्षों को खाद पानी दिया जाता है, वह 'लेपआहार' हैं यदि शरीर के श्रृंगार के उद्देश्य से आप कर रहे हो, तो राग दृष्टि है, पर आहार नहीं हैं सल्लेखना के काल में, मनीषियो! चार प्रकार के आहार का त्याग होता हैं आगम में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय ये चार प्रकार के आहार हैं तो लेह्य आहार है, 'लेप आहार' नहीं हैं "लेह्य' यानि जिसको चाट-चाट कर खाया जाता है, जैसे चटनी, रबड़ी आदि सल्लेखना के समय में, यदि क्षपक को उचित निर्यापकाचार्य नहीं मिले और आगम-ज्ञान के अनभिज्ञ मिल गए तो असमाधि जरूर करा देंगें शरीर में दाह हो रहा है तो शीतल उपचार कर दों परिणाम विकृत न होने पाएं ग्रीष्मकाल है तो उनके तलुवों में आप घी लगा दो इग्नी-मरण की साधना जब करता है साधक तो, मनीषियो! पूर्ण स्वावलंबी होता हैं अपने शरीर की सेवा स्वयं करेंगें सभी श्रावकों को वैयावृत्ति करने का अधिकार नहीं हैं सल्लेखना के काल में उसी साधु और श्रावक को अंदर प्रवेश देना जिसका निर्विचिकित्सा अंग, वात्सल्य अंग, उपगृहन अंग, स्थितिकरण अंग प्रचुर हों वहाँ संयम के दोष नहीं देखे जाते, वहाँ परिणामों को सम्हाला जाता हैं अज्ञानी जीव को तो यह लगेगा-अरे! इतने बड़े साधु, और भोजन माँग रहे थे? हाँ, भोजन भी माँग सकते हैं लेकिन आपकी बुद्धि इतनी निर्मल होनी चाहिए कि भोजन भी न दें और संक्लेषता भी न होने दें __भो ज्ञानी! मरण का तीसरा भेद भक्त प्रत्याख्यान मरण हैं इसका उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का होता है, घन्य काल अंतर्मुहूर्त का है और मध्यकाल के असंख्यात भेद हैं उसमें मुनिराज स्वयं भी अपने शरीर की सेवा कर सकते हैं और दूसरे से भी करवा सकते हैं आप लोग परमेष्ठी को, जो जिस रूप में है, उसे वैसा मानिए अरिहंत, अरिहंत हैं और साधु, साधु हैं भूल तुम्हारी भावना की हो जाती है जो कि आपने साधुओं को भगवान मान लिया हैं अठारह दोषों से रहित तो भगवान होते हैं, साधु नहीं वे अट्ठाईस मूलगुणो के पालक होते हैं महाव्रतों का पालन मुनिराज करते हैं लेकिन उन्हें तुम भगवान बनाकर चलोगे तो तुमको दोष नजर आएंगें उनको महाराज मान कर चलोगे तो निर्दोष नजर आएँगें जहाँ तुमने जैसे को वैसा नहीं समझा तो सम्यकज्ञान भी नहीं होगां अन्यून अर्थात् न्यूनता से रहित हो और अधिकता से रहित हों 'यथातत्वम्', जो जैसा है उसको वैसा समझना, उसका नाम सम्यज्ञान हैं एक अविरत सम्यग्दृष्टि को हम महाव्रती का अवरोपण करके देखें तो उसका जीवन नहीं चल सकतां जो साधुचर्या का कथन करने का ग्रंथ है, उसे श्रावक अपने में देख लेगा तो श्रावक बनकर नहीं जी पाएगां पंचम काल का साधु बारहवें गुणस्थान को लेकर चलेगा तो कभी साधु बनकर नहीं जी पाएगा, घबरा जाएगां Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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