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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 438 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
पहले शुद्धि बोल लो, फिर ग्रास देना, नहीं तो मुख की गंदगी, भाप और थूक भी उचकते हैं थूक उचटता है तो मन में पाठ करों अभिषेक करो, अरहंत के मुख पर थूक मत डाल देना
भो ज्ञानी! अमृतचन्द्र स्वामी की अपेक्षा से दाता के गुणों में एक फलानुपेक्षा हैं ऐसा सोचकर कभी दान मत देना कि महाराजश्री तनिक आशीर्वाद दे जायेंगे, दुकान-मकान अच्छे बन जायेंगे, चलने लग जायेंगे, पुत्र-पुत्रियाँ हो जायेंगें कोई लौकिक फल की अपेक्षा मत रखनां शांति-क्षमाभाव से युक्त और निष्कपटता होना चाहिए ये ध्यान रखना, वहाँ भी कपट न हो जाए कि थोड़ा-सा दिखाया, मुट्ठी में बंद किया और पटक दियां धर्म-संकट में डाल दिया पात्र कों पथ्य के विरुद्ध लेता है, तो दोष और नीचे गिराता है, तो दोष आपको तो भक्ति दिख रही है, पर यह नहीं मालूम कि महाराज का भी कोई गुण होता हैं वह दोष महाराज को लगेगा और यदि ले लेते हैं तो बीमार हो जाते हैं इसलिए श्रद्धा भक्ति, प्रकट करना, मगर छल-कपट के साथ नहीं अरे! दुबारा दे देना, तीन बार प्रार्थना कर लो, परंतु घुमा-फिरा कर मत करना, कपटपूर्वक दान मत देनां यह भक्ति नहीं हैं ईर्ष्या रहित होकर देनां कभी-कभी बड़ी ईर्ष्या आती हैं बोले-यह जो उठाते हैं, वही हम उठायेंगें दोनों के झगड़े में बेचारे पात्र की हालत खराब होती जा रही हैं बोले-हम तो यही देंगें इनके इधर तो चार दिन हुए नहीं और चारों महाराज के आहार हो गये और पहले ही दिन हो गयें अरे! आप तो एक नियम ले लो कि मुझे दस दिन शुद्ध भोजन करना हैं कोई विकल्प नहीं हैं छतरपुर में एक भैया को उन्नीस दिन हो गये, बेचारे की विधि मिल नहीं रहीं अब उन्हीं की विधि लेकर चलो, हमने तो सिर्फ विचार किया, उन्होंने चौका ही बंद कर दियां इक्कीसवें दिन उनके मन में आ गई, फिर चौका लगा लिया, सो फिर विचार किया तो वे सबेरे से कहने आ गये-महाराज! आज भी हमने चौका लगाया हैं गया काम से भाग्य की बात है, विधि मिली एक महीने बाद और प्रथम ग्रास में अंतराय आ गयां कभी-कभी ऐसा हो जाता हैं लेकिन ईर्ष्या भाव मत रखनां देखो, आपके यहाँ आहार नहीं हो पाए, लेकिन आपने भावना कितनी बनाई कि कोई न कोई तो आ जातां उनके यहाँ तो एक के ही आहार हये, जिनने यह भावना भाई कि भगवन! कोई तो आ जातां कितनी उच्च भावना? जितने छठवें, चौथे, पाँचवे गुणस्थान में जीव होंगे, सबका पुण्य मिल गयां जो शुद्ध भोजन आप करते हैं, वही देनां शक्ति से ज्यादा कर लेते हैं, फिर खिन्नता आती हैं पात्र को दान देकर प्रमुदित होना चाहिए, हर्षित होना चाहिएं अहो दान! अहो दाता! ऐसे भाव आते हैं भो ज्ञानी! अहंकार नहीं करना कि हमारे यहाँ तो पांच दिन में पांचों ही मुनिराज निपट गये और तुम लोग खड़े ही रह गयें ऐसे भाव मत लानां जो दाता इन गुणों से युक्त होकर पात्र को दान देता है, वह सम्यक-दृष्टि जीव नियम से मोक्षगामी ही होता हैं
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