________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 410 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
जाते हैं, तो किसी के मरने के बादं यदि हमारे जीते जी विच्छिन्न हो गए तो हमारा तीव्र अशुभ कर्म का उदय माननां विच्छिन्न तो होते ही हैं, इसको तो कोई टाल नहीं सकता लेकिन आज से जोड़ने का ही प्रयास करूँगा और नहीं जुड़े तो फिर इतना ध्यान रखना कि निज से जुड़ना मत छोड़ देनां कर्त्तव्य कर लेना, लेकिन उसमें भी संक्लेशता मत लाना कि, हाय! अब मैं क्या करूँगा? अरे भाई! तुम फिर चिंतवन करना एक तिर्यंच कां माँ कहीं रहती है और बेटा कहीं बिक जाता है, लेकिन फिर भी जीवन चलता हैं यह स्वतंत्र रहने का सूत्र हैं
भो ज्ञानी! 'दूर रहना' मोक्षमार्ग में बाधक नहीं है, पर 'दुर्भावना' मोक्षमार्ग में बाधक हैं पास रहकर दुर्भावना रहेगी, तो मोक्षमार्ग में बाधक हैं अहो! दूर रहना तो सूर्य बनकरं कितनी दूर है, पर सबको प्रकाश दे रहा हैं लेकिन पास में रह कर भी अंधेरा हो तो जीवन में कोई सार नहीं हैं इसलिए पास रहकर उपवास करना, लेकिन उपवास करके दूर मत हो जाना, क्योंकि आप ममता माँ की बातों में चले गए थे यह जिनवाणी समता की माँ हैं ममता की माँ ढकेल सकती है, दूर भगा सकती है पर, भो चैतन्य समता की माँ तुझे संयम के पालने में ही थपकियाँ लगाएगी इसलिए ममता की माँ छूटती है तो छूट जाए, पर समता की माँ को नहीं छोड़नां
अहो मनीषियो! ध्यान रखना, माँ जिनवाणी की गोद में खेलने का पात्र वही होता है, जो यथाजातरूप होता हैं तुम जब जन्मे थे तब निर्विकार थे, इसलिए हमारे जिनशासन में निग्रंथ मुनिराज को यथाजात कहा हैं यथाजात को देखने में किसी को विकार नहीं आते, कोई आँख नहीं सिकोड़ता, नाक नहीं सिकोड़तां भो ज्ञानी! विश्वास करना, आप यहाँ नंगे खड़े हो जाओ तो यह सब भाग जाएँगे और बालक आ जाए तो आप उसे गोदी में बिठा लेंगे तथा मुनिराज जी आ जाएँ तो तुम सिर टेक दोगें नग्न वेष तो सुन्दर ही होता है, क्योंकि वह प्रकृति का रूप हैं अहो! विश्व में वस्त्रधारियों की संख्या तो अंगुलियों पर गिनने लायक है, लेकिन प्रकृति नग्न हैं अतः सत्य पर कोई चिह्न लगाने की आवश्यकता ही नहीं देखो पूरी प्रकृति कैसी नजर आ रही
भो ज्ञानी! जिसकी भोजन शुद्धि, भजन शुद्धि, आहार शुद्धि, विहार शुद्धि और निहार शुद्धि है, उसकी व्यवहार शुद्धि हैं जिसकी व्यवहार शुद्धि है, उसकी परमार्थ शुद्धि है और जिसकी व्यवहार शुद्धि नहीं है, उसकी परमार्थ शुद्धि भी नहीं हो सकतीं जहाँ व्यवहार शुद्धि हो जाती है, मनीषियो! वहीं निश्चय दृष्टि हो जाती हैं आप संक्षेप में इतना ही समझना कि अभेद दृष्टि निश्चय है और भेद दृष्टि व्यवहारं अभेद स्वरूप की लीनता निश्चय है और भेद स्वरूप की दष्टि व्यवहार हैं
मनीषियो! आप क्रिया तो करते हो, लेकिन विधि के अभाव में निर्जरा नहीं कर पाते हो जैसे, आप लोग उपवास भी कर लेते हो तो इतनी क्रिया और कर लिया करो कि उपवास के दिन अनासक्त चित्त हो
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com