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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 398 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
सम्हालो, निज संबंध को सम्हालों निज की टोकनी में निज मन-मेढ़क को सम्हाल लो, उसमे कल्याण हैं ये परिवार/कुटुम्ब सम्हलनेवाला नहीं है, क्योंकि इसकी दशा ही विचित्र हैं इसलिए विश्वास रखो, सम्हाल किसी को नहीं सकते हो, किन्तु संभालने का प्रयास करना ही पुरुषार्थ करना हैं अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि सम्पूर्ण राग-द्वेष की निवृत्ति हेतु अपने परिणामों को सम्हाल लो, उसी का नाम सामायिक हैं।
भो ज्ञानी! मुमुक्षु जीव यह भी नहीं देखता कि कहाँ बैठना हैं वह स्थान की खोज नहीं, समय की खोज करता है कि मेरा समय, एक क्षण भी न चला जाएं जीवन में आपको कितने मिनिट मिले हैं और उन मिनिटों/समयों का उपयोग आपने कहाँ किया है? शिक्षाव्रत शिक्षा दे रहा है कि साम्यभाव जिस परिणति से हो, उसका नाम सामायिक हैं इच्छाओं की पूर्ति को पूर्ण कर लेने का नाम साम्यभाव नहीं है, इच्छाओं की पूर्ति का निरोध करने पर समता रखना, इसका नाम साम्यभाव हैं प्यास लग रही थी, परिणाम खराब हों, इससे अच्छा है कि पानी पी लो, और बोलें कि साम्यभाव हैं देखना, हम कितना विपरीत सोचते हैं ? जिनवाणी कहेगी कि जब तुमको प्यास लग रही हो और रात्रि का काल हो, तीव्र तृषा सता रही हो, उस समय साम्यभाव रखों यदि पानी पीने का नाम साम्यभाव है तो, मनीषियो! भोग भोगने को भी सामायिक कहना पड़ेगां अरे! परिणाम कलुषित नहीं रखना है, लेकिन पानी भी नहीं पीना हैं
भो ज्ञानी! आज तू स्वतंत्र हैं परतंत्रता में तूने सागरों प्रमाण पानी नहीं पियां इतनी प्यास लगी थी कि 'सिंधु-नीर से प्यास न जाए,' पर एक बूंद पानी भी पीने को नहीं मिलां आपको तो सुबह मिल जाएगां जल को पीते-पीते अनन्त पर्याय निकल गईं अब तू चैतन्य-नीर का पान करं पानी पीना तेरा स्वभाव नहीं है, भोजन करना तेरा धर्म नहीं हैं अहो प्रभु! आपके नाम की जाप करते-करते मेरे प्राण भी निकल जाएँ, वह भी मुझे स्वीकार हैं इसका नाम साम्यभाव हैं चारित्र को खोकर भोगों में लिप्त हो जाना, इसका नाम साम्यभाव कह देना, यह जिनवाणी का अवर्णवाद हैं
___ भो ज्ञानी! चौबीस घंटे अपने साथ गुरु को बिठा के चलनां जो समय-समय पर तुझे तेरे त्याग को याद दिला दें, उसी का नाम गुरु है, उसी का नाम श्रुत है और वही आगम का ज्ञान हैं विषमता के काल में हमें समता का ध्यान दिला दे, इसी का नाम श्रुत है, वहीं सम्यक हैं साम्यभाव के संस्कार डालो, पता नहीं कब उपसर्ग आ जाए, कब परीषह आ जाएँ? वे दिन अपने जीवन के श्रेष्ठ मान के चलना जिन दिनों तुम्हारे निकट-संबंधी तम्हें दःखित करें क्योंकि उनके राग में हम वीतराग को भल रहे थे अहो संबंधी! तने अच्छ संबंध स्थापित किया, कम से कम मुझे वीतरागता का भान तो करा दियां मैं आपके राग में बैठकर पता नहीं कितने कर्मों का बंध कर रहा था ? इसलिए सामायिकचारित्र कहता है कि साम्यभाव का अर्थ भोग की लीनता नहीं है साम्य भाव का अर्थ स्वभावलीनता हैं इसलिए ध्यान रखना, जीवन में संयम की साधना वही कर सकता है जिसको तीव्र चिंता हों जिसे सामायिक में स्वभाव का विकल्प होता है, उसे नींद नहीं आती
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