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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 380 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
संपूर्ण क्षेत्र के गमनागमन का त्याग कर दो बहुत घूमां जितना देह से नहीं घूमा, उतना तू मन से घूमा हैं अब इतना तो कम से कम कर लों जब जाना हो तो चले जाना, पर दुनियाँ में घूमने के लिए मत घूमों क्योंकि विमान की रफ्तार मंद है, पर मन की रफ्तार तो विमान की रफ्तार से भी तेज हैं जिस स्थान पर पहुँचने के लिए आपको लोक अपमानित होना पड़ता है, ऐसे जघन्य स्थान पर आप एक क्षण में प्रवेश कर जाते हों पानी के लिए छिद्र करना पड़ता है, तब निकल पाता है पर यह मति तो बिना छेद का छेद कर देती हैं मति कहती है कि तुम्हें अभी पता नहीं कि कहाँ-कहाँ पहुँच चुकी श्रुति को पकड़ना सहज हैं श्रुति को कैसेट में बंद कर लिया जाता हैं जो मति को बंद कर लेता है, वह वंदनीय हो जाता हैं जब तक मति बंद नहीं हुई है, तब तक तुम वंदनीय होने वाले नहीं हो, बदनाम जरूर हो जाओगें मति यानि मन, बुद्धिं यह मति नहीं मानती है, इसलिए तुझे गतियाँ प्राप्त होती हैं बारहवें गुणस्थान तक मति चलती हैं तेरहवें गुणस्थान में भाव-मन का कोई उपयोग नहीं होतां इसलिए मोक्ष दिलाती है तो मति, संसार में घुमाती है तो मतिं मति को अपना बना लेना, मति के बनके नहीं चलनां मति को अपना बना लिया तो मनीषियो! मोक्ष चले जाओगें आप मति के बन गए तो वह संसार में भटका देगीं मन नहीं होगा, बुद्धि नहीं होगी तो संयम की साधना कैसे करोगे ? ज्ञान की आराधना व निर्दोष चारित्र कैसे पालोगे ? यह मति का ही काम हैं लेकिन मति को दुर्मति मत होने देनां दुर्मति हुई, वहीं तुम्हारी दुर्गति हुई
अहो मनीषियो ! आत्मा का घात आत्मा से मत करों शरीर से शरीर का घात होता है तो पता चलता हैं प्रागभाव, प्रध्वन्साभाव, अन्यूनाभाव और अत्यंताभाव इन चार अभाव की चर्चा आगम / दर्शन - शास्त्र में की गई हैं इस जड़ देह का और मेरा अत्यंताभाव हैं अन्योन्या भाव में हम अपना स्वभाव मान रहे हैं, ये ही जड़मति हैं यदि पश्चाताप है, तो संताप निश्चित नष्ट होगा और यदि नहीं है, तो संताप नष्ट होने वाला नहीं जिस जीव में पश्चाताप नहीं आ रहा है, उस जीव को दुर्गति का बंध हो चुका हैं भूल हो जाना सहज हैं जो भूल को सुधार लेता है, वह भगवत्ता की ओर होता हैं जो भूल को भूल ही स्वीकार नहीं कर रहा है, उससे बड़ा कोई अन्य अभगवान् नहीं हैं जो अपनी भूल को स्वयं अपने मुख से कह रहा है, संसार में उससे बड़ा कोई भगवान् नहीं हैं जो पश्चाताप से इतना भर जाता है तो वह जी नहीं सकता है, निश्चित गुरु- चरणों में निवेदन करेगां अहो! दिव्रत, देशव्रत की पालक आत्माओं को मात्र देह के गमनागमन का त्याग नहीं करा रहे, वह तो आप कर ही देनां बाहर के गमनागमन के त्याग के साथ बाहर जाते हुए मन को भी रोक लेना, इसका नाम होगा दिव्रतं फिर कलम चाहिए अमेरिका की, कपड़े चाहिए चीन के, नेपाल के फिर तुम्हारा देशव्रत कैसा ? जिनवाणी कह रही है कि जिसने देशव्रत ले लिया है, वह दूसरे देश जाएगा ही क्यों ? स्वयं की भी शांति, दूसरों को भी शांति
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