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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 377 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
व्याख्यान करता है तब वह तत्त्व में लीन नहीं होता हैं व्याख्यायी न तो चिद्रूप है, न कभी अपना व्याख्यान करता हैं जो व्याख्यान करता है, वह व्याख्यायी हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता, क्योंकि व्याख्यान अनंत का होता है और व्याख्याता एक का होता हैं अहो! एक व्याख्याता के व्याख्यान में अनन्त झलकता है और अनंत व्याख्यान को समझकर जो मात्र एक द्रव्य को जानता है, वह तत्त्व- ज्ञाता होता हैं केवली व्याख्याता हैं, उनके व्याख्यान में अनंत झलक रहे हैं, पर अनंत प्रयोजनभूत नहीं होतें अनंतज्ञान जब तक नहीं होगा, तब तक तुम केवली भगवान् भी नहीं बन सकतें तब तक निर्वाण नहीं होगा; अनंत ज्ञाता के ज्ञान में अनंत झलकता है, पर जिसे अनंत को जानने का विकल्प नहीं होता उसका नाम केवली भगवान् होता हैं अनंत को सुधारने के जब तक विकल्प हैं, तब तक एक को भी नहीं सुधार सकतें
अहो ज्ञानियो! जो तेरा शत्रु बनके आया है, वह भी तेरा ही कर्म हैं नवीन शत्रु को जन्म नहीं देना है तो शत्रु की शत्रुता को सहन कर लों व्यक्तियों पर दृष्टि डालने से कभी कल्याण संभव नहीं हैं जिस दिन समत्व भाव आ जाता है, वह दिन शत्रु से खाली हो जाता है और जिस दिन समत्व स्वभाव पलायन कर जाता है, उस दिन मित्रों से खाली हो जाता हैं द्रव्य का न कोई मित्र है और न कोई शत्रु शत्रु और मित्र दोनों मेरी आत्मा तक नहीं जा पातें आत्मा तक तो स्वयं मुझे ही जाना होगा पर बिना खोए कुछ बन नहीं पाओगें दूध पानी को खोता है, तब मावा बन जाता हैं यही दशा आत्मा की हैं जो कषायों को खो देता है, वह खोया(मावा)बन जातां उसको भोगों का स्वाद नहीं आता, योग का स्वाद आता हैं वही अहंत अवस्था को प्राप्त कर लेता हैं
भो ज्ञानी! आप कहेंगे कि हम तो संत स्वभावी हैं, किसी से शत्रता नहीं रखते, सबसे मैत्री- भाव हैं देखो, मैत्रीभाव तो है, कहीं राग-भाव तो नहीं है? मैत्री-भाव और राग-भाव में बहुत अंतर होता हैं मैत्री-भाव में राग नहीं होता, प्राणी मात्र का हित होता हैं राग भाव में व्यक्ति विशेष हो सकता हैं मैत्री नहीं कहती कि मेरे दादा, मेरे पिता, मेरे रिश्तेदारं मैं मनुष्यों में करूँगा या कि तिर्यचों में करूँगां जबकि राग-भाव कहता है कि मेरे दादा, मेरे पितां सत्ता की बात करोगे, तो राग होगां 'सत्वेषु मैत्रीम्' शब्द कह रहा है कि सबके प्रति जो मित्रता का भाव है, उसका नाम मैत्री है और एक व्यक्ति विशेष के प्रति जो भाव हैं, उसका नाम राग हैं जब 'सत्वेषु मैत्री तुम्हारे अंदर निहित हो जायेगा, अब बताओ शत्रु कहाँ है? जिसकी कामना मर जाती है, वासनायें मर जाती हैं, राग-द्वेष मर जाता है, वहाँ से संतभाव का उदय होता हैं इतना हो जाएगा तो तुमको सत्व नजर आएगां
___अहो ज्ञानियो! सामायिक करना चाहते हो तो उसके एक घंटे पहले लोगों का सुनना बंद कर दो; क्योंकि हम बाहर के लोगों को ज्यादा सुनने लगे हैं उसमें अपनी आवाजें टकराने लगी हैं, इसलिए साधना विफल हो रही हैं चौबीस घंटे यदि सबका प्रवेश चल रहा है, तो ध्यान लगेगा कैसे? साधक की परीक्षा
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