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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 374 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
विघात तो करा ही देती हैं इसलिए आचार्य भगवान् कह रहे हैं कि लोगों से ज्यादा अपेक्षाएँ मत रखों निज की अपेक्षा बनाके चलो कि मेरे अंदर वह शक्ति प्रादुर्भूत हो जिस शक्ति के माध्यम से मैं दुनियाँ की कषायों को पीना सीख लूँ कषाय को प्रकट करना तो वमन के तुल्य हैं
मनीषियो ! आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि जब जीवन में विशुद्धता आती है, तब वह भावों में भी अभिव्यक्त होती हैं आपने देखा होगा कि पुष्प कहीं पर भी खिला हो, दिख भी नहीं रहा है, तो भी सुगंध के माध्यम से पता चल जाता है कि कनेर खिला हुआ है या गुलाब खिला हैं ऐसे ही जीव के भावों की परिणति सुगंध के रूप में अभिव्यक्त हो जाती हैं।
भो ज्ञानी! कषाय आकाश में उड़ती है, क्षमा पृथ्वी में होती हैं कषाय वाला उड़ता ही दिखता हैं इसलिए जब आप पृथ्वी के समान हो जाओगे, तो यदि कोई आप पर क्रोध करना चाहेगा तो वह भी शांत होकर चला जायेगा अतः बाड़ी लगाना है संयम और शील कीं इसलिए यह तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत पालन करने की आचार्य भगवान् आपको आज्ञा दे रहे हैं
भो चेतन! क्षुल्लक चिदानंद जी महाराज भाग्योदय तीर्थ सागर में ठहरे हुये थें उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया हम महाराज लोग सब वहाँ गये, चर्चा हुई उनकी चर्चा से बहुत अच्छा लगा वह वर्णी जी के सान्निध्य में रहे थे हमने पूछा- क्षुल्लकजी! ठीक हो? बोले- महाराजश्री ! खराब था ही कब? पूछा- अपने में हो? बोले- अपने में जब कहूँ, जब मैं बाहर में रहूँ मैं तो कहीं बाहर गया ही नहीं मनीषियो ऐसे ही अपने से बाहर जाने का मन मत करों उल्हास का मद जब व्यक्ति को चढ़ता है तो वह इतना होता है कि तीर्थंकर बना देता हैं सभी जीवों का कल्याण हो, सभी जीव सुखी रहें, इस ध्येय से इतना गद्गद् भाव रहता है कि उसी क्षण तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता हैं उसे कोई शत्रु नजर ही नहीं आतां बस दृष्टि रखो भावों परं ग्राम, नदी, पर्वत आदि सब ओर से मर्यादा करके पूर्व आदि दिशाओं में तथा विदिशाओ में गमन न करने की प्रतिज्ञा करना चाहिएं फिर ध्यान रखना कि मैं कहाँ हूँ, किस रूप में हूँ, क्या बनने जा रहा हूँ? तीन बात का ध्यान रख लिया तो त्रिलोकपति बन जाओगे द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव का ध्यान रख लिया तो चतुष्टय की प्राप्ति होगी बस वेग में आवेग नहीं, वेग में वेग लग जायें वेग यानि शीघ्र, आवेग यानि क्रोधं जिनको क्रोध आता है, उनका विवेक चला जाता हैं जो वेग विवेक को बुला लेते हैं, उनका आवेग वेग से चला जाता हैं
भो ज्ञानी! हमारा आगम कहता है कि जिस स्थान पर ब्रह्मचारियों को बैठना है वहाँ यदि कोई विषम- लिंगी बैठ गया हो, तो एक मुहूर्त तक उस स्थान को छोड़ दों जैनदर्शन कितनी बड़ी बात कह रहा है कि जहाँ कोई स्त्री बैठ चुकी है, वहाँ तुम तुरंत नहीं बैठनां जहाँ कोई पुरुष बैठ चुका है, वहाँ आर्यिका आदि को तुरंत नहीं बैठना चाहिए जो वर्गणाएँ वहाँ पढ़ी हुई हैं, वे वर्गणाएँ निर्मल नहीं हैं उनका आवेग अन्तर्मुहूर्त को छोड़ दो, तो तुम्हारी रक्षा हो जायेगीं अब उसे पर्यावरण कहने लगे हैं, पर जैनदर्शन कहेगा - आभा मण्डल,
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