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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 352 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
काललब्धि के रूप में फलित होता है, तब वही प्रभु की कृपा बन जाती है, लेकिन वास्तव में कर्म के अलावा कुछ भी नहीं हैं सब निज का कर्म है, और निज के कर्म सुधर जाएँ, इसी का नाम धर्म होता हैं जब धर्म निर्मल हो जाता है, तो वही परमधर्म (वस्तु का स्वभाव), परमेश्वर बन जाता हैं
भो चैतन्य! अर्थ और काम पुरुषार्थ तो कर्त्तव्य रूप में है, पर वस्तुतः धर्म और मोक्ष ही परम पुरुषार्थ हैं अर्थ एवं काम दो पुरुषार्थ संसार के हैं, इसीलिए उनको पुरुषार्थ नहीं कहों परम पुरुषार्थ वही है, जो सिद्ध बना दें ध्यान से समझनां दर्शन-ज्ञान आत्मा का धर्म है और आवरण करना कर्मों का धर्म क्षयोपशम-शक्ति वीर्यांतराय-कर्म का काम है, लेकिन क्षयोपशम आत्मा में हैं
भो ज्ञानी! इस धारणा को दूर कर देना कि आपके चश्मे के लैंस से दिखता हैं बाहर का लैंस तो मंदता का प्रभाव कम करने में निमित्तभूत काम करता हैं अतः, चश्मा निमित्तरूप हैं उपादान बिना निमित्त कुछ भी नहीं कर पायेगां वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम आत्मा में हैं उस शक्ति को अभिव्यक्त कराने में निमित्त/ हेतु काँच हैं पर कर्मसिद्धांत जहाँ आ जाता है, वहाँ द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, प्रथमानुयोग की कोई गणना नहीं होती है और जहाँ करणानुयोग ने जिसको 'हाँ' कह दिया, बस, अब समझ लो कि कोई टालनेवाला नहीं भगवान् भी बने, तो करणानुयोग से गुणस्थान कैसे चढ़ रहे हैं? क्षपणा कैसे हो रही है ? उपशमन कैसे हो रहा है ? इन सब दशाओं का व्याख्यान करने वाला करणानुयोग हैं परन्तु बंध या निबंध करणानुयोग से नहीं, करण से है, नहीं तो यहाँ करणानुयोग कर्ता बन जाएगा तेरे बंध-अबंध कां बंध या अबंध तो तेरे 'करण' यानि तेरे परिणाम से हैं
भो ज्ञानी! अंतरंग परिग्रह छूटने लग जाए तो बहिरंग परिग्रह अपने आप भागने लग जाएगां लेकिन कहीं छल ग्रहण नहीं कर लेना कि अंतरंग परिग्रह मेरा छूट गया, अतः मैं बहिरंग परिग्रह से भी छूट गयां बहिरंग परिग्रह का होना यह बता रहा है कि अंतरंग-परिग्रह भी हैं जब नीचे का पानी सूखेगा, तब ही ऊपर की मिट्टी सूखती हैं ऊपर की मिट्टी गीली हो और आप कहो कि नीचे बिलकुल सूखा है, ऐसा संभव नहीं ध्यान रखना, धर्म जब अंतरंग में प्रवेश कर जाता है तो शूल भी फूल-से महसूस होते हैं और जिसके अंतरंग में धर्म नहीं होता, उसको हित की बात भी करोगे तो शल-जैसी लगेगी जिस जीव का पुण्य क्षीण हो जाता है, उसके सद्विचार भी विनाश को प्राप्त हो जाते हैं आप सम्यक समझाएँगे, परंतु उसको विपरीत लगेगां अहो रागी प्राणियो! आपको राग में अच्छा लग रहा है, क्योंकि आप वीतराग-दृष्टि से दूर हों आप सोचते हो यदि वैराग्यदृष्टि से मेरी सिद्ध-अवस्था हो जाएगी, तो दुकानें कौन चलाने आएगा? अभी तो यह दृष्टि है, लेकिन इसका विकल्प नहीं करना कि मैं सिद्ध बन गया तो संसार कौन चलाएगा? इसीलिए तो तुम संसार में हों अहो! तुझे घर चलाने की चिंता हैं
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