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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 336 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 "भिन्न-स्वरूपोऽहं" हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसान्तरंग संगेषु बहिरंगेषु तु नियतं प्रयातु मूच्चैव हिंसात्वम् 113
अन्वयार्थ : हिंसापर्यायत्वात = हिंसा के पर्यायरूप होने से अन्तरंगेषु = अंतरंग (परिग्रह) में हिंसा सिद्धा = हिंसा स्वयंसिद्ध हैं तु बहिरंगेषु = और बहिरंग परिग्रहों में मूर्छा एव = ममत्व–परिणाम ही हिंसात्वम् = हिंसा-भाव कों नियतम् प्रयातु = निश्चय से प्राप्त होते हैं
भो मनीषियो! भगवान् अमृतचंद्र स्वामी ने बड़ा अनुपम सूत्र प्रदान किया है कि अपने जीवन में सत्य-स्वरूप को पहचानना है तो असत्य छोड़ने की आवश्यकता है, क्योंकि सत्य अपने आप में सहज हैं सत्य की प्राप्ति के लिए कुछ नहीं करना पड़ता परन्तु असत्य जीवन जीने के लिए बहुत पुरुषार्थ करना पड़ता हैं असत्य बनाना पड़ता है, असत्य छिपाना पड़ता है, छिपाने के पीछे न जाने कितने सत्य का बलिदान करना पड़ता हैं यदि सत्य में जीना सीख लिया तो आपको किसी से डरने की जरूरत नहीं डर तभी तक होता है, जब तक तेरा जीवन असत्य में होता हैं
भो चेतन! सत्य किसी को ओढ़कर नहीं चलता, किसी का सहारा नहीं लेतां असत्य को सँभलने के लिए पर-का आलंबन लेकर चलना पड़ता है और सत्य अपने आप में शुद्ध होता है, इसलिए किसी की अपेक्षा नहीं रखतां यदि नेत्र में फुली है तो चश्मा चढ़ा लो, लेकिन यह तो बताओ कि चश्मे से क्या फुली समाप्त हो जाएगी ? परन्तु आपने असत्य के काले काँच को चढ़ा लिया दुनियाँ को अच्छा दिखाने के पीछे, पर तुम अच्छे कब हुए हो ? भो ज्ञानी! जो अच्छा दिखाना चाहता है, वह अच्छा होता नहीं है; अन्यथा सत्य को छिपाने के लिए चश्मा लगा क्यों? ध्यान रखो, जिस सत्य को आपने काँच में छिपा रखा है, प्रथम तो वह सत्य तेरे से नहीं छिपा तथा उस चश्मे को लगाकर आपने धोखा देने का प्रयास तो कियां दोष को छिपाने के लिए अनेक पर्दे डाल दिये हैं, लेकिन पीड़ा को छिपा कर बताओ, तब जानें
अहो! सत्य को केवली भगवान् से छिपा कर बताओ तो जानें आपने चश्मे से अपनी विकृति को तो छिपा लिया, लेकिन आँख के दर्द को नहीं छिपा पाएं भो ज्ञानी! ध्यान रखो, तुम असत्य के पर्दे डालकर
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