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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 334 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 चेतना से युक्त हैं धन-धान्य, सोना, चाँदी, घर, मकान- यह अचित्त-परिग्रह हैं वस्त्र व आभूषण से सुसज्जित आपकी स्त्री पुत्र आदि ये मिश्र - परिग्रह हैं। अहमेदं एवमहं अहमेदस्सेव होमि मम एवं अण्णं जं परदव्यं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वां 25 आसि मम पुव्वमेदं अहमेदं चावि पुव्वकालहिं होहिदि पुणोवि मज्झ, अहमेदं चावि होस्सामि26 ( स.सा.) 'समयसार में आचार्य कुंदकुंददेव कह रहे हैं ऐसे तीन प्रकार के परिग्रह को अज्ञानी अपना त्रैकालिक मानता हैं मैं इसका हूँ, यह मेरा है, ये भविष्य में मेरा होगा, ये भूत में मेरा हुआ था, ये मेरे रहे, इनका मैं रहूँ, इनका में था या ये मेरे थे, इनका मैं हूँ, ये मेरे हैं. ऐसे त्रैकालिक राग किये बैठा है यह ममता करा रही हैं अतः बंध का मूल - हेतु ममता हैं ममता चाहे दर्शन - मोहनीय हो, चाहे चारित्रमोहनीय हो, लेकिन दोनों ही बंध कराती हैं इसलिये आचार्य भगवान् अमृतचंद स्वामी ने स्पष्ट कह दिया है कि जब तक ममता है, तब तक अहिंसा नाम की वस्तु नहीं हैं भो चेतन! जहाँ शुभोपयोग की चर्चा चल रही हो, वहाँ ध्यान रखना, शुद्ध-उपयोग और शुभ-उपयोग गौण है, परन्तु अभाव नहीं है; क्योंकि जैनदर्शन किसी पदार्थ का अभाव नहीं करतां अभाव पदार्थ का नहीं होता है, अभाव पर्याय का होता हैं एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अभाव ही है; परंतु स्वद्रव्य में स्वद्रव्य का अभाव नहीं होता; शुभ पर्याय में शुभ पर्याय का अभाव नहीं होतां लेकिन परिग्रह पुण्य नहीं हैं यदि परिग्रह पुण्य होता, तो पाँच पाप में यह पाप का स्वामी क्यों कहा जाता ? और इसके साथ जो लोभकषाय चलनेवाली है, उसे पाप का बाप कहा जाता हैं परिग्रहसंज्ञा सबसे खोटी संज्ञा हैं आहारसंज्ञा तो मात्र छटवें गुणस्थान तक चलती है, किन्तु शेष संज्ञाएँ चलती है आठवें गुणस्थान तकं मैथुनसंज्ञा नौवें गुणस्थान तक और परिग्रह' संज्ञा दसर्वे गुणस्थान तक चलती हैं भो ज्ञानी ! परिग्रह के चौबीस भेद हैं श्रावको ! जब तक तुम परिग्रह का परिमाण नहीं करोगे, तो मुनिराज बनोगे कैसे? आप लोगों में से किसी को तीनलोक की संपदा आज तक नहीं मिली, लेकिन जब तक तुमने परिमाण नहीं किया, तब तक तीनलोक की संपदा का आस्रव जारी हैं कम से कम आप लोग मध्यलोक की संपदा के परिग्रह का परिमाण कर लो और अधोलोक, ऊर्ध्वलोक के परिग्रह को छोड़ दों मध्यलोक में भी तुम ढाईद्वीप के बाहर तो जा नहीं सकते हो, तो ऐसा कर लो कि ढाईद्वीप में जितने द्रव्य होंगे, उनका भोग Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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