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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 327 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"भोग नहीं, योग है निर्जरा का हेतु"
अतिसंक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च प्रथमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु 115
अन्वयार्थ : सः = वह (परिग्रह) अतिसंक्षेपात् = अत्यन्त संक्षिप्तता से आभ्यन्तरः च बाह्यः = अन्तरंग और बहिरंग द्विविधः भवेत् = दो प्रकार का होता है च = और प्रथमः = पहिला ( अर्थात् अन्तरंग परिग्रह) चतुर्दशविधः = चौदह प्रकार कां तु = तथा द्वितीयः =दूसरा (अर्थात् बहिरंग परिग्रह) द्विविधः भवति = दो प्रकार का होता है
भो मनीषियो! अंतिम तीर्थेश भगवान महावीर स्वामी की पावन-पीयूष देशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने अमूल्य सूत्र दिया है कि जहाँ ममत्व है, वहाँ बंध है; क्योंकि द्रव्य के सद्भाव में भी बंध होता है और द्रव्य के अभाव में भी बंध होता हैं यह मोह की अग्नि बहुत उत्कृष्ट हैं मोह की अग्नि की महिमा अनंत हैं जब द्रव्य होता है, तो जलाती ही है; और जब द्रव्य नहीं होता तो भी जलाती हैं जब द्रव्य होता है तो भोगों की लिप्सा झुलसाती हैं जब द्रव्य नहीं होता, तो भोग-सामग्री की प्राप्ति की लिप्सा जलाती हैं जब भोग को भोग चुकता है, तो पश्चाताप की भट्टी में झुलसता हैं आत्मा के त्रैकालिक गुणों का जो दहन करे, उसका नाम भोग–अग्नि है, मोह-अग्नि हैं
अहो चेतन आत्मा! संयमरूपी चादर के प्रभाव से तू अशुभ की ठण्डी से बच रहा था, पर भोगों की निद्रा में इतना लिप्त हुआ कि अपने पुण्य के चादर को ही फाड़ डाला अरे ! जब पाप की ठण्डी लगने लगेगी, तब मालूम चलेगा कि, हाय! मैंने तो पुण्य का चादरा ही फाड़ डालां मोह की विडम्बना तो देखो, जो विशाल काष्ठ में छिद्र कर देता है, वृक्ष की कोटर में अपने घर बना लेता है, लेकिन वह भ्रमर कोमल कमल को नहीं छेद पाता हैं
भो ज्ञानी! पर्याय को मिटाने का भाव मत रखों अज्ञानी पर्याय मिटाने की चिंता में मिट रहे हैं, जबकि ज्ञानी अशुभ-परिणामों को मिटाकर अमिट हो रहे हैं अज्ञानी 'पर्याय निर्मल हो जाये, पर्याय सुधर जाये, ऐसा चिल्लाकर पर्यायों में भटक रहे हैं और ज्ञानी अपने परिणामों को सुधारकर परमेश्वर बन रहे हैं इसलिये,
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