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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 299 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 वंदित्तु सव्वसिद्धे, धुवमचलमणोवमं गदिं पत्तें
वोच्छामिसमयपाहुडमिणमो, सुदकेवली भणिदं 1 आचार्य 'कुंदकुंद देव' ने 'समय पाहुड' ग्रंथ के मंगलाचरण में ही कह दिया है कि जो सिद्ध परमेश्वर सत्ता है, वह अनुपम हैं सत्य को समझने के लिए वाणी की आवश्यकता नहीं होतीं सत्य मौन होता हैं
मनीषियो! यह दृष्टि समझनां जब धर्म का स्वरूप दिखता है, तब धर्मात्मा दिखते हैं, वहीं सुख दिखता हैं, परन्तु आनंद नहीं आनंद कहना है तो फिर परमानंद कहना, खुशी नहीं कहनां खुशियाँ चेहरे की होती हैं, खुशियाँ पुद्गल पर झलकती हैं सुख तो सुख होता हैं सुख में गीलापन नहीं होता, क्योंकि गीलेपन से फिसलन होती है, जीव फिसल जाते हैं सुख निर्बन्ध-दशा है और खुशियाँ बंध-दशा हैं खुशियों के लिए दूसरों की खुशियाँ भी देखनी पड़ती हैं खुशी के लिए स्वयं के सुख को भी खोना पड़ता हैं सुख अंदर की दशा हैं खुशी परावलंबी है, जबकि सुख स्वावलंबी हैं मनीषियो! सुख चितरूप होता, सुख आत्मा की सैंतालीस शक्तियों में जीवत्व-शक्ति, चिद-शक्ति, दर्शनशक्ति, ज्ञानशक्ति तथा पाँचवी शक्ति का नाम है सुख-शक्तिं सुख आत्मा का धर्म हैं अज्ञानी सुख को खोज रहा है पुद्गलों में अहो! दुःख में सुख खोजना इससे बड़ी अल्पज्ञता क्या हो सकती है?
भो ज्ञानी आत्माओ! तीनलोक में अनंत जीव हैं सभी सुख चाहते हैं तथा दुःखों से भयभीत हैं, परंतु सुख समझते नहीं; दुःख को ही सुख मान लिया हैं भोगों को सुख मान लिया हैं बंध को कराने वाला, विछिन्न होने वाला, ऐसा इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाला सुख तो दुःख ही हैं सुख उसे कहते हैं जिसके भोगने से पश्चात्ताप नहीं होता है, संताप नहीं होता हैं सुख उसे कहते हैं जो सबके सामने भोगा जाता हों वह कैसा सुख जिसके पीछे काली रात्रि याद आ जाती है, जलते दीपों को बुझाया जाता हो? अहो ज्ञानी! उस इन्द्रिय-सुख के लिए तू क्या कर रहा है? तूने अपने पुण्य का एक दीप बुझा दिया, जैसे कि आप जन्मदिन की मोमबत्तियाँ बुझाते हों कितना बड़ा अविवेक का काम चल रहा है? अपने हाथ से अपनी आयु को नष्ट होते देख मिठांइयाँ बाँट रहा हैं खुशियाँ मना रहा हैं अरे! उस दिन तो रोना चाहिए फूट-फूटकर कि, ओहो! मेरा एक वर्ष चला गयां भो ज्ञानी! सिद्धांत तो कहेगा कि यह मरणदिन है, क्योंकि एक वर्ष मर चुका हैं
भो ज्ञानी! जीवन को जी लेना कोई बड़ी बात नहीं जीवन को संभलकर जीना, यह ज्ञानियों की समझ होती हैं जीवन तो तिथंच भी जीते हैं, नारकी भी जीते हैं, परन्तु जो जीवन की कीमत समझकर जी रहा है, उसका नाम ही जीवन हैं अतः जब तक उतरोगे नहीं, तब तक तरोगे कैसे?
मनीषियो! वसन उतर जायेंगे, वासनायें उतर जायेंगी, तो फिर तुम भी अंदर में उतर जाओगें जब अंदर में उतर जाओगे, तो संसार से तिर जाओगें देखो! यह श्रमण-संस्कृति प्रकृति की संस्कृति हैं सत्य में
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