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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 284 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 "मत करो किसी से घृणा" यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपिं तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः संति चत्वारः91
अन्वयार्थ : यत् किं अपि = जो कुछ भी प्रमादयोगात् = प्रमाद के योग सें इदं असत् अभिधानं = यह असत्य कथनं विधीयते = कहा जाता हैं तत् अनृतं = वह असत्यं विज्ञेयं = जानना चाहियें तद् भेदाः अपि = उस असत्य के भेद भी चत्वारः संति = चार हैं
स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तुं तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्रं92
अन्वयार्थ : स्वक्षेत्रकालभावैः = अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सें सदपि हि वस्तु = विद्यमान होने पर भी वस्तुं यस्मिन् = जिस वचन में निषिद्धयते = निषिद्ध की जाती हैं तत् प्रथमं असत्यं = वह पहला असत्य हैं यथा अत्र = जैसे यहाँ परं देवदत्तोऽत्रः नास्ति = देवदत्त नहीं हैं
भो मनीषियो! कुन्दकुन्द स्वामी के 'समयसार' में वर्णित 47 शक्तियों में दूसरी शक्ति है 'चिति-शक्ति' यह आत्मा जड़ नहीं, चैतन्य है, चिद्रूप है, चैतन्यरूप हैं अजड़त्व-स्वभावी है, जड़-स्वभावी नहीं हैं जड़ याने विवेकहीनता, जड़ याने चैतन्य-शून्यतां अहो! प्रबल पुण्य के योग से जीव ने पंचेन्द्रियजाति में मनुष्यजाति को प्राप्त किया है, फिर भी तुम प्रपंच में पड़े हों विवेक तो लगाओ, क्षेत्रीय भेदों में आकर अपने स्वभाव को मत खो देनां चिति-शक्ति कह रही है कि यदि यह जीव विवेक से देखे, तो भेद ही नहीं हैं विवेकहीनता में भेद है, विवेकशून्यता में भेद है; विवेक में कोई भेद नहीं हैं पानी चाहे गिलास में हो, कटोरे में हो, सकोरे में हो, घड़े में हो, चाहे स्वर्णकलश में, परंतु बर्तनों के भेद से नीर में भेद नहीं होता
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