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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 27 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
भो ज्ञानियो! धर्म व्यवस्था का तात्पर्य यह भी मत मानना कि हमारी धर्म की व्यवस्था हैं आप यह मानकर चलिए कि यह हमारे स्वभाव की व्यवस्था हैं धर्म यानि वस्तु का स्वभावं व्यवस्था धर्म के उद्देश्य से नहीं, निज-धर्म के उद्देश्य से करनी हैं एक कहता है कि, मैं जिनदेव को तो मानता हूँ, पर जिनवाणी को नहीं मानतां अरे! जिनवाणी को नहीं मानता तो जिनदेव कहाँ से आये ? एक कहता है कि मैं जिनवाणी को मानता हूँ, जिनदेव को नहीं मानतां भो ज्ञानी! तुझमें भी अभी कुछ कमी है, और एक कहता है कि मैं जिनवाणी को मानता हूँ, जिनदेव को मानता हूँ परंतु गुरूदेव को नहीं मानतां
भो ज्ञानी आत्माओ! वीतराग-विज्ञान कह रहा है कि ध्यान रखो, सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र और देव-शास्त्र-गुरु ये तीनों इकट्ठे जब तुम्हारे सामने होंगे, तभी चैतन्य-ज्योति का प्रकाश दिखेगा, अन्यथा प्रकाश दिखने वाला नहीं हैं आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने पहले कैवल्यज्योति को नमस्कार किया, फिर परमागम को नमस्कार कियां अभी ग्रंथ प्रारंभ नहीं हुआ, भूमिका चल रही हैं जिसकी भूमिका इतनी निर्मल होगी, वह ग्रंथ कितना निर्मल होगां आचार्य अमृतचंद्र स्वामी जो इतना गहन लिख रहे हैं, तो श्रद्धान कितना गहन होगा, और जब यह ग्रंथ लिख रहे होंगे तो उपयोग की कितनी निर्मलता में भरे होंगे, कितनी बार स्व-स्वरुप में स्पर्श कर रहे होंगे ? ध्यान रखना, प्रवचन से ज्यादा लेखन में विशुद्धी बनती है और जब विशुद्धि बनती है, तब तो भगवान् जिनेंद्र के शासन पर कलम चल रही होती हैं भो ज्ञानियो! कवियों ने तो खोटे-काव्य लिख-लिखकर के इतने ऊँचे-ऊँचे पर्वत बना डाले, तो सुकवि आचार्य भगवंत कहते हैं कि हे नाथ ! जिनकी कुकाव्य लिखने में कलम नहीं थकी, तो मेरे सुकाव्य लिखने में कलम कैसे थक सकती है ? भर्तृहरि ने कितनी-कितनी उपमा दी हैं सो आप पढ़ लेना 'श्रृंगार शतक' में और फिर उन्हीं भर्तृहरि की पढ़ लेना 'वैराग्य शतक' आप कहेंगे-यह 'श्रृंगार शतक' का लेखक कैसे हो सकता है? और जिसने वैराग्य शतक' पढ़ ली हो, फिर 'श्रृंगार शतक' पढ़ेगा वह कहेगा यह वैराग्य शतक के लेखक कैसे हो सकते हैं ? यह तो मनीषियो! बुद्धि का व्यायाम हैं परंतु आचार्यों ने बुद्धि का व्यायाम नहीं किया, उन्होंने तत्त्व का व्यायाम किया हैं
भो ज्ञानी आत्माओ! आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने पहले ही कह दिया कि यह ग्रंथ 'विदुषां (विद्वानों) के लिए लिखा जा रहा है, अज्ञानियों के लिए नहीं हे विद्वानों! वही ज्ञान, ज्ञान है जिसमें संवेदन है, और जिसमें संवेदन नहीं, वह ज्ञान नहीं जिसमें अनुभवन नहीं, वह ज्ञान तो अज्ञान हैं इसलिए आत्मज्ञान ही ज्ञान है, शेष सभी अज्ञान हैं पर यदि आत्मज्ञान में शून्यता है तो आगमज्ञान भी उसके लिए ज्ञान का काम कर जायेगा पर तुम्हारे लिए तो अज्ञान ही हैं
"अज्ञानात् कृतम् पापम् सद्ज्ञानात् विमुच्यतें ज्ञात्वाज्ञानं कृतम् पापम्, वज्रलेपो भविष्यते" सु.र.
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