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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 255 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
पुण्य नहीं है कि कोई ऋद्धिधारी मुनिराज तक नहीं हैं, कोई अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, केवली भी नहीं हैं, फिर भी हम खुश हैं क्योंकि हमारे पास देव-शास्त्र-गुरु तो मौजूद हैं, श्रद्धा तो मौजूद हैं
भो ज्ञानी! यह बीज है, पर उसे मिट्टी भी तो चाहिए हैं भूमि नहीं है, तो बीज क्या करेंगे? संयम नहीं है तो श्रद्धा क्या करेगी ? क्योंकि श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के अभाव में शिवमगचारी नहीं होगां इसलिए अहिंसा की दृष्टि, रूढी-दृष्टि बनाकर चलनां अहिंसा को कहने की आवश्कता नहीं, प्रत्येक हृदय ही अहिंसामय हैं बस इतना ही ध्यान रखो कि आप अपने साथ जैसा चाहते हैं, वैसा आप दूसरों के साथ करों यदि हमने बीज को ही वृक्ष कह दिया और वृक्ष को ही फल कह दिया तो सब गड़बड़ काम हो जाएगां शक्ति, शक्ति है; अभिव्यक्ति, अभिव्यक्ति हैं शक्ति में अभिव्यक्ति छिपी हुई है, पर अभिव्यक्ति तो शक्ति से पार हो चुकी हैं क्योंकि तिल-तिल में तेल होता हैं तिल तेल नहीं होता, पर जब भी तेल निकलेगा तो तिल से ही निकलेगा लेकिन ध्यान रखो, तिल में कभी पूड़ियाँ नहीं सिकती हैं, तेल में ही सिकती हैं जब भी मोक्ष होगा तो सम्यक्त्वपूर्वक ही होगा, कोरे सम्यक्त्व से मोक्ष नहीं होगां भो ज्ञानी! सम्यक्त्व का टिकिट ले लों टिकट खरीदने के बाद भी अर्द्ध-पुद्गल-परावर्तन काल तक तुम यहाँ रह सकते हो, क्योंकि टिकिट तो खरीद लिया, परंतु तुमने पुरुषार्थ सम्यक् नहीं किया तो टिकिट महत्वहीन हो जाएगां परंतु यह पक्का हो गया कि अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन काल अन्दर निर्वाण की प्राप्ति होगी
भो ज्ञानी! विभूति देखकर, वैभव देखकर, खुश होकर कभी तुम हिंसा में तल्लीन मत हो जानां विश्वास रखना, कोई संशय मत रखना कि सर्वार्थसिद्धि में तैतीस सागर कैसे निकलते हैं? तैंतीस सागर तत्त्व चर्चा करते हुए निकल जाते हैं श्रुत में बड़ा आनंद होता है ऐसा भगवान कह रहे हैं संसार में अनन्त अज्ञानीजीव हुये हैं, जिन्होंने हिंसा में धर्म स्वीकार कर लियां कोई भी देव माँस भोजी नहीं होता है और वे मदिरापान भी नहीं करतें यह तो रसना के लोलुप लोगों ने निरीह प्राणियों के टुकड़े करके स्वयं रक्त पिया, सेवन किया और कहा कि प्रभु प्रसन्न हो गयें अहो जैनियो! ध्यान रखना, चाहे प्रभु की पूजा हो, चाहे पात्र का दान हो, चाहे जिनालय का निर्माण हो, चाहे धर्म का प्रवर्तन हो, कभी हिंसकप्रवृति को बढ़ावा नहीं देना, विवेक से काम करना; क्योंकि जैनदर्शन का प्राण ही अहिंसा हैं जहाँ एक पत्ते को तोड़ने में हिंसा कही गई है, वहाँ किसी के प्राणों को तोड़ने को अहिंसा कैसे कहा जा सकता है ? इसलिए, धर्मात्मा तो होना, पर धर्मान्ध मत बननां यह बड़ी अज्ञानता है कि धर्म के नाम पर कितनी-कितनी खून की नदियाँ बह जाती हैं ? यह धर्म नहीं है, सम्प्रदाय है, धर्म कभी द्वेष नहीं सिखातां अरे! धर्म तो अहिंसा है या फिर आत्म-धर्म धर्म हैं तीसरा कोई धर्म है ही नहीं जिसमें प्राणी का बलिदान हो, वह कैसा धर्म? जिसमें एक-दूसरे के भाईचारे का भाव नष्ट हो जाए, वह कैसा धर्म?
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