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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 241 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 भो ज्ञानी ! जीवन में तत्त्व को समझो और तत्त्व प्राप्ति का उपाय भी समझों 'समयसार' तत्त्वज्ञान है और 'मूलाचार 'श्रावकाचार यह तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के उपाय हैं तत्त्वज्ञान कर लिया, परन्तु तत्त्वज्ञान से तत्त्वज्ञ नहीं बन पाओगें पंचास्तिकायों में शुद्ध जीवास्तिकाय बनना है, सात तत्त्वों में शुद्ध जीव-तत्त्व बनना है, नौ पदार्थों में शुद्ध जीव पदार्थ, छह द्रव्यों में शुद्ध जीव द्रव्य बनना है, तो मनीषियों! अशुभ भावों को एवं अशुभ क्रियाओं को छोड़ना पड़ेगा "पंचास्तिकाय ग्रंथ में जब ग्रंथकार ने नमस्कार किया तो भगवान् का नाम नहीं लिया, उन्होंने लिखा शुद्ध जीवास्तिस्तकाय को नमस्कारं उन्होंने अर्हन्तों तक को नमस्कार नहीं किया, शुद्ध 'जीवास्तिकाय' को नमस्कार किया हैं आप शुद्ध 'जीवास्तिकाय हो क्या? जबकि प्रत्यक्ष में आप पुद्गल में लिपटे दिखते हो, प्रत्यक्ष में आप कर्म से बद्ध हों भो ज्ञानी ! यदि शुद्ध जीवास्तिकाय की प्राप्ति करना चाहते हो, तो अशुद्ध परिणति का परित्याग करों जो शुद्ध 'जीवास्तिकाय नहीं होता, वह द्रव्य से भी अशुद्ध होता है, पर्याय से भी अशुद्ध है और गुणों से भी अशुद्ध होता हैं। भो चेतन्य! ऐसी दृष्टि रखो कि मेरे अंदर जो जीवत्व शक्ति है, वो शक्ति इन उदम्बर फलों के अंदर भी हैं औषधियाँ खा रहे हो, उनमें जो जीव बैठे हैं वे कौन हैं? वे भी सिद्ध शक्ति सहित हैं शक्ति सर्वत्र लगाओं जब तुम माँस को नहीं खा सकते हो तब दूसरों के रक्त की बोतलों को कैसे ले सकते हो? रक्त, माँस कोई दान नहीं हैं हमारे आगम में चार ही दान कहे हैं- औषध, अभय, आहार, शास्त्रं लेकिन औषध के नाम पर रक्त नहीं लिखां पहले भी औषधियाँ थीं, क्या पहले ताकत की आवश्यकता नहीं पड़ती थी? माँ जिनवाणी कहती है कि आप श्रावकाचार के अनुसार चलों भोजन भी करो, वह भी विवेक के साथ करों सुरविज्ञान कहता है कि स्वस्थ रहना चाहते हो तो दिन के बारह बजे भोजन नहीं करना थोड़ा आगे या पीछे कर लों भोजन कर लिया और सो गयें वैज्ञानिक दृष्टि से समझो, जो भोजन करके तुरंत सो जाते है* उसका भोजन वैसा ही रखा रहता है, पच नहीं पाता. इसलिए वह बीमार हो जाता हैं इसी प्रकार इच्छानुसार मत खाया करो, भूख के अनुसार खाया करों जो इच्छानुसार खाएगा, वह कभी निरोग नहीं रह सकतां जो भूख के अनुसार खाएगा, वह कभी अस्वस्थ नहीं रह सकतां भो ज्ञानी! भगवान् अमृतचंद्र स्वामी समझा रहे है: यस्मात्मकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथमात्मनात्मानम् 'जो कषायों से युक्त होता हैं, वह पहले तो अपनी ही आत्मा का घात कर ही लेता हैं क्योंकि जहाँ राग होता है, वहाँ हिंसा होती हैं तुम साग-भाजी क्यों सुखा रहे हो? क्योंकि तीव्र राग लगा हुआ हैं एक जगह लोगों ने कहा- हम मठा नहीं खाते, हरी और द्विदल का त्याग है, इसलिए नींबू की कढ़ी बनी हैं दूसरे ने कहा अरे ! मेरा हरी का त्याग हैं भाई ! यह तो सूखे नींबू की बनी हैं नींबू कैसे सुखाया? बोले- एक कपड़ा लिया, उसमें नींबू निचौड़ा और उसको सुखाने रख दिया, जब उतना सूख गया, फिर उसी पर दूसरा नीबू निचोड़ दिया, ऐसे दस-बारह नींबू कपड़े में निचोड़ दिए और जब कढ़ी बनानी हुयी, तो कपड़ा को पानी में डुबो दियां धन्य Visit us at http://www.vishuddhasagar.com - Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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