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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 24 of 583 ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
सोच है ? सबके सोच को सुन लो और सुनने के बाद निर्णय करों यदि पहले ही निर्णय कर दिया तो आपसे दूसरा नाराज हो जायेगां इसलिए प्रश्न एक नहीं होता, प्रश्न सात होते हैं, इसी कारण इसका नाम सप्तभंगी हैं इस विषय को बहुत गहरे में समझना हैं यदि यह समझ में आ गया तो आप वास्तव में जैनदर्शन को समझते हों जैनदर्शन की पहचान विश्व में स्यादवाद से है और स्यादवाद जिस दिन नष्ट हो गया उस दिन किसी देश का संचालन हो ही नही सकतां
भो ज्ञानी! दृष्टि में अनेकांत वाणी में स्याद्वाद और चर्या में अहिंसा यह जैनदर्शन का मूल आधार हैं अनेकांत धर्म है, वस्तु धर्मी है, उस धर्म और धर्मी को कहने वाली वाणी 'स्यादवाद' हैं यह स्यादवाद 'कथनशैली' हैं इसमें ही नय एवं प्रमाण है अर्थात् श्रुतज्ञान में नय एवं प्रमाण होते हैं केवलज्ञान 'प्रमाण' हैं, नय नहीं स्याद्वाद - ज्ञान नय व प्रमाण दोनों ही हैं अतः शुद्ध द्रव्य में भी भंग लगेंगे, परंतु पर्यायदृष्टि और द्रव्यदृष्टि अथवा उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य की अपेक्षा सें अहो! इस कथनशैली को समझकर आचार्य समन्तभद्र स्वामी, आचार्य विद्यानंद स्वामी आचार्य अकलंक स्वामी आदि महान आचार्यों को पूरा जीवन अनेकांत / स्याद्वाद के लिए ही समर्पित करना पड़ा
एक दिन प्रश्न आया कि, महाराजश्री! 'स्वामी' क्यों लगाते हैं ? भो ज्ञानी ! जिन्होंने मूल ग्रंथों की टीकायें की हाँ उन आचार्यों के नाम के आगे स्वामी लगाया जाता है पंचपरमेष्ठी की दृष्टि से पाँचों ही परमेष्ठी तुम्हारे स्वामी हैं लेकिन यह विषय न्याय का चल रहा है, नय का चल रहा है, यहाँ तुमको तर्क से चर्चा करनी पड़ेगी कि जिन्होंने मूल आचार्यों के मूलग्रंथों पर टीकाग्रंथ लिखे हों, उन आचायों के नाम के आगे स्वामी संज्ञा जोड़ी जाती हैं जिनने कोई टीकाग्रंथ नहीं लिखे उनके स्वतंत्र नाम तो होते हैं, पर 'स्वामी' शब्द नहीं जोड़ा जाता, जैसे कि अमृतचंद स्वामी, क्योंकि इन्होंने 'समयसार' ग्रंथ' पर 'आत्म- ख्याति' टीका लिखी और समन्तभद्र स्वामी के लिये जो स्वामी शब्द लगाया जाता है क्योंकि उन्होंने 'तत्वार्थ सूत्र' ग्रंथ पर 'गंधहस्ती - महाभाष्य' टीका लिखी, जो आज अनुपलब्ध हैं उन्होंने जगत में स्याद्वाद - अनेकांत का डंका पीटा था, संपूर्ण भारत वर्ष में इसलिए, मनीषियो ! उनके लिए उपाधि दी गई थी 'स्वामी' अकलंक देव महाराज ने ’तत्वार्थसूत्र' पर 'राजवार्तिक' टीका एवं पूज्यपाद स्वामी ने 'तत्वार्थसूत्र' पर 'सर्वार्थसिद्धि' टीका लिखी है जो दिगम्बर आम्नाय में सबसे पहली टीका हैं अकलंकदेव ने सर्वार्थसिद्धि टीका के ऊपर टीका ग्रंथ लिखा, इसको 'वार्तिक' कहते हैं आचार्य अकलंकदेव की प्रतिभा थी कि जो एक बार सुन लिया, याद हो गयां
भो ज्ञानी! अपन तो कंगूरों को निहार रहे हैं यदि समंतभद्र, अकलंकदेव जैसे महान आचार्य नहीं होते, तो चोटी में गांठ बंधी होतीं वह काल ऐसा था जिसमें कहा जाता था कि नमन करो अन्यथा गमन करों यह प्रश्न था कि यह वीतरागी - शासन जयवंत कैसे रहेगा? पर जबतक समंतभद्र के इस शरीर में सांसें, हैं तब तक, हे प्रभो ! आपको छोड़कर नमन तो संभव नहीं हैं है इतनी श्रद्धा ? है विश्वास ? तनिक सी फुंसी हो
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