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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 205 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 "मिथ्यात्व का शमन करनेवाला जिन नयचक्र"
अत्यंतनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् 59
अन्वयार्थ : जिनवरस्य = जिनेंद्र भगवान् कां अत्यंत निशितधारं = अत्यंत तीक्ष्ण धार वाला दुरासदं नयचक्रम् = दुस्साध्य नयचक्र धार्यमाणं = धारण किया हुआं दुर्विदग्धानाम = मिथ्याज्ञानी के मूर्धानं = मस्तिष्क कों झटिति खण्डयति = शीघ्र ही खण्ड-खण्ड कर देता हैं
अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन नित्यमवगूहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा 60
अन्वयार्थ : नित्यम् = निरन्तरं अवगूहमानैः = संवर में उद्यमवान् पुरुषों कों तत्त्वेन = यथार्थता से हिंस्यहिंसकहिंसा = हिंस्य, हिंसक, हिंसा-भावं हिंसाफलानि अवबुध्य = हिंसा के फलों को जानकरं निजशक्त्या = अपनी शक्ति के अनुसारं हिंसा त्यज्यतां = हिंसा को छोड़ना चाहिये
मनीषियो! जैन-आगम अपने आप में अगाध हैं इसका पार पाना ज्ञानियों को भी सहज नहीं हैं "गुरुवो भवन्ति शरणं" यदि लोक में कोई मंगलोत्तम शरणभूत है, तो पंच-परम-गुरु हैं वे जीव धन्य हैं, जिनके परिणाम पंच-परम-गुरु के चरणों में नमस्कार करने के होते हैं जीवन में धनहीन को सबसे बड़ा अभागा नहीं कहनां जिसका मन हीन है, लोक में उससे बड़ा कोई अभागा नहीं अहो! जिस जीव की परिणति पंच-परमगुरु के चरणों में सिर झुकाने की नहीं हो पा रही है, समझ लेना उसका अत्यंत क्षीण पुण्य चल रहा है, क्योंकि पुण्य की वृद्धि पंचपरमगुरु की आराधना से ही होती हैं अशुभ-आयु का बंधक कभी भी यह नहीं सोच पाता है कि वीतराग-मार्ग क्या है? आत्मा का हित किसमें है? जबकि मुमुक्षु/प्रतिक्षण, प्रतिपल यही चिन्तन करता है कि आत्मा का हित किसमें है? 'प्रवचनसार' की टीका में जयसेन स्वामी बड़ी सहज बात
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