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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 191 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
पर बैठे भूपति को देख लीजियें दोनों ही मनुष्य हैं पालकी नहीं दिख रही, तो रिक्शा देख लों उस पर बैठे होते हैं आप बाबूजी बनकर और उसको खींच रहा होता है मनुष्यं सम्मेद शिखर में जाकर देख लो, डोलियों पर तुम लदे हो, बेचारे खींच रहे हैं, वे क्या मनुष्य नहीं हैं? पर तिर्यंच के समान वाहन का काम कर रहे हैं, ऐसे ही देवों में वाहन-जाति के देव होते हैं जो मनुष्य वर्तमान पर्याय में कुछ धर्म तो करते हैं, लेकिन मायाचारी भी करते हैं, छल-कपट करते हैं, यदि उन्होंने इस लोक में देव-आयु का बंध भी कर लिया हो, तो उन्हें वाहन-जाति के देव बनना पड़ता हैं ये सब परिणति के परिणाम हैं ।
भो ज्ञानी! तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ स्वामी के बारे में उल्लेख आता है कि जब वे बालक के रूप में खड़े हुए थे, तब वहां से मुनिराज निकले, तो उन्होंने दूसरे लोगों से तो कह दिया कि ये मुनिराज हैं, उन लोगों ने नमस्कार किया, लेकिन स्वयं नमस्कार नहीं कियां हाँ तीर्थंकर कभी किसी को वंदन नहीं करते हैं, क्योंकि यदि वंदना कर लेंगे, तो 'स्वयंभू' संज्ञा समाप्त हो जायेगीं ऐसा उनका नियोग हैं वे कभी किसी से व्रत भी नहीं लेते हैं स्वयं ही व्रत लेते हैं कभी किसी के पास पढ़ने भी नहीं जाते, क्योंकि जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी होते हैं वह किसी को गुरु नहीं बनाते हैं यह तीर्थंकर भगवान् की व्यवस्था हैं यह पूर्व का प्रबल पुण्य का योग चल रहा है कि तीर्थकर-प्रकृति का बंध कियां लेकिन पूर्व में उन्होंने गुरु भी बनाये, अध्ययन भी किया है, पूर्व में नमस्कार भी किया हैं अरे! अरहंत, आचार्य, उपाध्याय की भक्ति नहीं की होती तो तीर्थंकरप्रकृति का बंध भी नहीं होतां पर देखो, उन्होंने इतना पुण्य कमाया कि अब वह पुण्य झुकने भी नहीं दे रहा हैं अब तो मात्र झुकायेगा ही झुकायेगां मात्र दीक्षा लेते समय बोलते हैं "नमः सिद्धेभ्यः" ध्यान रखना, 'ऊँ नमः' नहीं बोलेंगे, क्योंकि 'ऊँ नमः' कह देंगे तो उसमें आचार्य, उपाध्याय भी आ जायेंगें मात्र 'नमः सिद्धेभ्यः' अतः जब कोई प्रसंग आता है, तो वहाँ नमस्कार अर्थ में 'ऊँ' का उच्चारण नहीं करतें यद्यपि देशना खिर रही है, वह ओंकाररूप में खिर रही हैं वह 'वंदना नहीं, 'नमः' भी नहीं हैं
भो ज्ञानी! साधना और तपस्या निर्वाण का ही कारण होती है, यदि उसमें थोड़ी कमी रह जाये तो भी उसका फल निष्फल नहीं जातां एक पालकी पर बैठा है, एक पालकी को ढो रहा हैं देख लो, एक पुज रहा है, एक पूज रहा हैं यही पुण्य और पाप का फल हैं आप जो शुभ-अशुभ परिणति कर रहे हो, वह पुण्य-पाप हैं जिस कृत्य के करने पर अतिसंक्लेषता बढ़े या स्वयं लगे कि मैं चेहरा दिखाने लायक नहीं हूँ, तो समझना, इसका परिपाक कितना गहरा होगा? गहरे पाप में ही गहरी संक्लेषता बनती हैं अहो! आज मैं दृष्टि उठाकर नहीं देख पा रहा हूँ आज मैं विद्वानों के बीच बैठने का पात्र नहीं बचां अहो! आज घर से बाहर निकलने की ताकत नहीं रखता हूँ अरे! जैसे इंद्रियों के पाप दिख जाते हैं, ऐसे मन के पाप दिख गये होते तो आज आप समाज में बैठ नहीं पातें जो तियंचों की व्यवस्था है, वही व्यवस्था आपकी होती, क्योंकि उनके प्रत्येक संज्ञा प्रकट हैं अंतर इतना है कि आप प्रज्ञाशील हो, सो छुपा लेते हो, लेकिन यह मानना पड़ेगा कि
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