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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 170 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 होता हैं हम आज तक साधु नहीं बन पा रहे हैं, अहिंसा के साथ नहीं चल पा रहे हैं, क्योंकि कषाय की तीव्रता में ऐसे चारित्रमोहनीय कर्म का बंध कर लिया है कि आज संयम धारण करने के हमारे परिणाम नहीं हो पा रहें भो ज्ञानी ! मुमुक्षुजीव विभूतियों को देखकर प्रसन्न नहीं होतां वह यह ध्यान रखता है कि विभूति / वैभव मेरे वैभव नाश के हेतु हैं वैभव दो हैं- एक निःश्रेयस वैभव और एक अभ्युदय वैभवं अभ्युदय यानी स्वगादि विभूतियाँ, चक्रवर्ती आदि का वैभव निःश्रेयस वैभव यानी शुद्ध सुखं यदि निःश्रेयस चाहते हो तो आज से लोक का श्रेय लेना बंद कर दो अहो! श्रेयों के पीछे निःश्रेयसों को खोखला कर लियां मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे श्रेय दें, लेकिन श्रेय निःश्रेयस नहीं हैं अरे ज्ञानी! अच्छा करोगे तो अपने आप अच्छा कहलाओगें इसलिए अच्छा करना, पर अच्छा कहलाने के भाव मत लानां श्रेय पानेवाले अहिंसा का पालन कभी नहीं कर पायेंगे, क्योंकि उन्हें श्रेय दिखता है, फिर हिंसा, असत्य और स्तेय में श्रेय नजर आने लगता हैं मिथ्या विनय में, इस श्रेय के चक्कर में वह विपरीतपने को भी नहीं समझ पातां अतः कुनय, अज्ञानता और असंयम को भी नहीं समझ पातां भो चेतन ! श्रेयों को प्राप्त करनेवालों के द्वारा कभी भी धर्म-प्रभावना नहीं हुई है और निःश्रेयस की दृष्टि से जिसने धर्म के मार्ग को चुना, उसके नियम से धर्म की प्रभावना हुईं आप स्वयं कहने लगते हो कि प्रभावना तो कर रहे हैं, लेकिन लक्ष्य अपना ही दिखता है, तो जितना हमने किया था वह पूरा समाप्त हो गयां आचार्य भगवान् अमितगति स्वामी, जो कि संस्कृतभाषा के प्रकाण्ड विद्वान् थे, उन्होंने 'योगसार प्राभृत' नाम का ग्रंथ लिखां अहो ज्ञानियो ! भवाभिनंदी मत बनो, अभिनंदन मोक्ष का करों वासनाओं के द्वार, यह भोगों के वंदनवार भव के अभिनंदन के लिए तुमने खड़े कर लिए कि मैं भव का अभिनंदन करता हूँ यह भोग भी सोचते हैं और कर्म भी सोचते हैं कि अच्छे लोग मिले हैं, यह तो हमारा अभिनंदन कर रहे हैं अहो ! लोकोत्तराचार में जीनेवाली आत्माओ! लोक का अभिनंदन मत करों यह अभिनंदन नहीं, बंधन है और बंधन से बचना चाहते हो तो भोग-विनाश के कार्य करो, क्योंकि स्वभाव से बाहर जब-जब भी जाओगे तब-तब भव का अभिनंदन ही होगा, भव का ही बंधन होगां इस पर्याय का अभिनंदन मनाकर तू खुश हो रहा हैं अहो मुमुक्षु आत्मन्! मोक्षमार्ग में आकर तेरी दृष्टि पर्याय के अभिनंदन पर ही टिकी हैं अभिनंदन तो तेरा तभी होगा, जब तेरा कर्म-बंधन छूट जायेगा फिर तो छद्मस्थों के मुख से नहीं, तेरा अभिनंदन सर्वज्ञ के मुख से होगां निग्रंथ भी तुम्हें शीश झुकायेंगें इसलिए आत्म- अभिनंदन आत्मा से करो, यही शुद्ध-उपयोग की निश्चल - दशा हैं भो ज्ञानियो! जब सौभाग्य का विनाश हो जाता है, तब अहोभाग्य का प्रादुर्भाव होता इसलिए सौभाग्य तक ही मत सोचते रहना, तुम कुछ और चिन्तवन करना इससे आगे भी वस्तु हैं जो अहोभाग्यशाली बन जाता Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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