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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 164 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"राग-हिंसा, राग का अभाव-अहिंसा"
यत्खलुकषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसां43
अन्वयार्थः कषाययोगात् = कषायरूप परिमित हुए मन वचन, काय के योगों से यत् द्रव्यभावरूपाणाम् = जो द्रव्य और भाव दो प्रकार के प्राणानां = प्राणों का व्यपरोपणस्यकरणं = व्यपरोपण या घात करना हैं खलु सा = निश्चय से वह सुनिश्चिता = भली-भांति निश्चय की हुई हिंसा भवति = हिंसा होती हैं
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेतिं तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेप:44
अन्वयार्थः खलु = निश्चय करके रागादीनां = रागादि भावों का अप्रादुर्घावः = प्रकट न होनां अहिंसा = अहिंसा है, औरं तेषामेव उत्पत्तिः = उन्हीं रागादि भावों की उत्पत्तिं हिंसा भवति = हिंसा होती हैं इति = ऐसां जिनागमस्य संक्षेपः = जैनसिद्धांत का सार हैं
भो मनोषियो! आचार्य महाराज अमृतचंद्र स्वामी ने कथन किया है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह पांच पाप हैं, पर यथार्थ में कोई पाप है, तो हिंसा ही हैं उस हिंसा से बचने के लिए ही आगम में शेष चार पापों की भी चर्चा की हैं जब आपने दूसरे के द्रव्य का हरण किया है, चाहे आपने अन्य हेतुओं से चोरी की हो, वह भी हिंसा हैं असत्य भाषण किया है, वह भी हिंसा हैं एक बार के अब्रह्मसेवन में नवकोटी जीवों की हिंसा होती हैं मैं तो यह मान रहा था कि यह सब विभूति मुझे पुण्य के योग से प्राप्त हुई है, परंतु परिग्रहत्मो पाप का संयोग कराकर ही जी रहा हैं परिग्रह हेतु जीवों का घात हिंसा ही हैं ।
भो ज्ञानी! लोक में किसी का वध करने को हिंसा कहा जाता है, परंतु जिनेंद्र की वाणी कहती है कि बदनाम करना भी हिंसा हैं इसलिए, जीवन में बध करनेवाले ने एक समय में तुझे कष्ट दिया है, लेकिन
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