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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 160 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
चाहते हो, तो संश्लेष को संश्लेष स्वीकारों ध्यान रखना, दूध में मावा पहले था, पर दूध माया नहीं थां अहो ! भगवती-आत्माओ ! आपमें भगवान् तो पूर्व से ही विराजमान है; लेकिन आप भगवान नहीं हों मनीषियो! दूध को मावा बनाने के लिए उसमें पर- द्रव्य (पानी) का जो उपाधि - परिणमन है, संश्लेष-संबंध है, उसको उड़ाया जाता है, तो मावा बन जाता हैं ऐसे ही इस जीव को ध्यान की अग्नि ( चारित्र की सिगड़ी) पर जब रखा जाता है, तो कर्मों का नीर वाष्पित होकर उड़ जाता है, एक मात्र शुद्ध आत्मा रहती है, उसी का नाम परमात्मा होता हैं बिना प्रक्रिया के जो दूध से माया निकालना चाहता है, वह बिना संयम के मोक्ष होना मानता हैं क्या कछुए की पीठ के बालों की रस्सी से हाथी को बाँधा जा सकता है ?
भो ज्ञानी ! चारित्र की निर्मलता से ही ज्ञान में निर्मलता आती हैं अहो ! तुम्हारे परिणाम जितने सुलझे हुए होंगे, उतना सुलझा हुआ तुम्हारा संयम होगां संशय विपर्यय, अनध्यवसाय- यह तीन दोष जिनके ज्ञान में चल रहे हो; वह संयमी नहीं बन पायेगा; क्योंकि वह सोचेगा कि जो मैंने स्वीकार किया है यही मोक्षमार्ग है या और भी कोई है ? इसलिए संयमाचरण चारित्र त्रिदोष से रहित होता हैं उस निर्मल में भी जो निर्मल होता है, उसका नाम स्वरूपाचरण - चारित्र होता हैं स्वरूपाचरण - चारित्र की निर्मलता से जो अन्तिम निर्मलता निकलती है, उसका नाम यथाख्यात चारित्र हैं यह परिणामों की निर्मलता हैं अहो! यह भावों की निर्मलता कहीं बाहर से नहीं आती, योगी अपने आप में ही अपने आप से प्रकट करता हैं एक बाह्य ज्ञानी तो शरीर की रक्षा कर लेता है, पर अन्तर-ज्ञानी आत्मा की रक्षा न कर सके तो जिनवाणी उसे ज्ञानी-संज्ञा नहीं दे पातीं निग्रंथ-ज्ञानी चर्म-चक्षु से नहीं, विवेकज्ञान के आगम-चक्षु से निहारते - निहारते चलता हैं
भो ज्ञानी! कुन्दकुन्द देव 'प्रवचनसार जी में लिख रहे हैं जितने कर्मों की निर्जरा एक अज्ञानी हजार वर्षों में करता है, ज्ञानी एक श्वांस मात्र में कर लेता हैं यह आगम- ज्ञानी की चर्चा नहीं, आत्म ज्ञानी की चर्चा हैं आत्मज्ञानी याने अनुभवज्ञानीं यह विद्या अनुभव - विद्या है, बाह्य - विद्या नहीं अनुभव अनुभूति का विषय है, व्याख्यान मात्र तक सीमित नहीं हैं तीनगुप्ति से युक्त वही होगा, जो चारित्र से युक्त होगा इसीलिए अमृतचंद्र स्वामी जिस ज्ञानी की चर्चा यहाँ कर रहे हैं, वह ज्ञानी विशद् (निर्मल) है, परभावों से उदासीन है और आत्मस्वरूप में लीन हैं 'समयसार' तब ही प्रकट होगा, जब संयम प्रकट हो जायेगां ध्यान रखना, जब तक नियमसार नहीं आ रहा है, तब तक समयसार कैसे आयेगा ?
भो ज्ञानी आत्माओ ! जिसे नियमसार, समयसार का द्रव्य - आगमज्ञान हो जायेगा, उसे जिनवाणी ज्ञानी नहीं कहेगीं जिनवाणी में भाव-आगम वाले ही मुमुक्षु होते हैं द्रव्य आगम से मोक्ष नहीं होता, द्रव्य आगम-भाव-आगम का हेतु तो होता है; परंतु कार्य नहीं होता, कारण होता हैं इसीलिए 'मूलाचार' में कुंदकुंद महाराज ने भी लिखा है
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