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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 156 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 मुझे अग्नि लगाई है, जब यह सिंह के जीव में था एक युवराज मैं ससुराल में आया था, तथा द्रोणगिरी पर्वत की गुफा में जहाँ सिंह विराजा था, उसमें कण्डे, लकड़ी भरवाकर अपने हाथों से आग लगा दी तब इसी पर्याय में सिंह ऐसे परिणामों से मरां अतः, जीवन में ध्यान रखना, कभी सर्प डसे तो उपचार तो कर लेना, पर साम्यभाव रखना, यह आपका स्वभाव हैं यदि आपने साँप को मार दिया तो एक काला नाग तो अपने धर्म में ही रहा, लेकिन आपने अपना धर्म छोड़ दियां
भो ज्ञानी! चारित्र ही तेरा गुण है, अचारित्र तेरा दुर्गुण हैं यदि गुण होगा तो दुर्गुण कभी प्रवेश करेगा ही नहीं विभाव-स्वभाव के अभाव का नाम ही स्वभाव हैं आप कुछ मत करो, बस स्वभाव में चले जाओ, लेकिन विभाव में मत जानां अधिक समय तक आप विभाव में रह भी नहीं सकतें विभाव तो पकवान है, स्वभाव रोटी हैं आप लम्बे समय तक पकवान खाकर नहीं जी सकतें आप रोज रोटी खाकर ही पूर्ण स्वस्थ जीवन जीओगें विभाव तड़क-भड़क होता है, आया और चला जाता है, पर स्वभाव सहज होता हैं सहज में शांति मिलती है, आनंद आता हैं प्रभु जब केवली बन जाते हैं तो किसी से नहीं कहते कि मुझे केवलज्ञान हुआ हैं तीर्थंकर महावीर स्वामी के सामने छह प्रति-तीर्थंकर थे, लेकिन वर्द्धमान को जैसे ही केवलज्ञान प्रकट हुआ, फिर उनका पता ही नहीं चला? इसलिये आप अल्पज्ञानी बनकर जीना, अल्पसाधक बनकर जीना, यथार्थ बनकर जीना, तो कभी भटक नहीं सकते और यदि ज्ञानी बनकर जीओगे तो परेशानी आयेगी, तुम धीरे से मायाचारी शुरू कर दोगें अभी तो असंयम ही था, अब साथ में मायाचारी और आ गईं इसीलिये जितना तुम कर रहे हो उतना सहज कर लो, लेकिन लोकमर्यादा का भी ध्यान रखें माना कि आप शुद्ध हो, परन्तु लोकमर्यादा के विरुद्ध कोई काम हो रहा हो तो उसकी मर्यादा का भी ध्यान रखनां
__ भो ज्ञानी! आचार्य महाराज कह रहे हैं कि चारित्र बड़ा गम्भीर हैं एक ओर स्वयं को दिखा रहा है और दूसरी ओर लोक की मर्यादा को दिखा रहा हैं ऐसा नहीं है कि मुनिराज को कभी मल-विसर्जन की आवश्यकता पड़ जाये तो कहीं भी बैठ जायें लोकमर्यादा का उनको भी ध्यान रखना होता हैं जिसे जनसामान्य स्वीकारता नहीं है, वहाँ चारित्र समाप्त हो जाता हैं आपके घर में नई बहू का चूँघट कुछ सीमा में रहता है, लेकिन संयमी के लिये तो चौबीस घंटे ही नहीं, जीवनपर्यंत रहता हैं हो सकता है कि कोई जीव गलत भी कर रहा हो अथवा नहीं मान रहा हो, वहाँ आपको यही सोचना होगा कि इसके कर्म का ऐसा उदय है जो कि अच्छी बात भी स्वीकार नहीं कर पा रहा हैं जिस दिन कर्म–विपाक मंद हो जायेगा, उस दिन यह इस बात को स्वीकार कर लेगा! क्योंकि जब तक कषाय का उद्रेक रहता है, तब तक जीव किसी बात को नहीं मान पाता, यह तो लोक की व्यवस्था हैं जिस बर्तन में दूध भरा हुआ है वह भी तब तक रहता है, जब
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