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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 151 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
तो, मनीषियो! शून्य का ही हैं जब संपूर्ण सत्ता समाप्त हो जाती है, तब शून्य की सत्ता का उदय होता हैं ओंकार के ऊपर जो बिन्दु रखा हुआ है, वह शून्य हैं मुनि, उपाध्याय, आचार्य, अरहंत की सत्ता समाप्त हुई, तब शून्य-सत्ता का उदय हुआं शून्य कहता है; जब संपूर्ण जगत् के कर्म-जाल समाप्त हो जाते हैं, तभी भगवती-आत्मा 'शून्य' का उदय होता है, इसी का नाम शुद्धात्मा हैं इसलिये 'ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं' अर्थात्
ओंकार बिन्दु-से-युक्त हैं आचार्य योगेन्दु देव ने शून्यस्वभावी आत्मा का कथन किया हैं तारण स्वामी ने भी 'शून्य–'स्वभाव' ग्रथ में शून्यस्वभावी आत्मा की चर्चा की हैं अहो! लोक जिसे शून्य मानता है, वह अज्ञानता का शून्य है, लेकिन जिसे भगवती माँ जिनवाणी 'शून्य' कह रही है, वह भगवत्ता की प्राप्ति का नाम हैं अतः जब तुम्हारी कषाय शून्य हो जाए, तुम्हारी वासना शून्य हो जाए, तब निर्विकल्प आत्मज्ञान प्रकट होगां
भो चेतन! ध्यान रखना, हलचल में कभी सुख नहीं है, जब तक लहरें उठती हैं, तब तक नीर में मोती नहीं दिखतां सागर में भी मोती होते हैं, जब जैसे-जैसे लहरें/धाराएँ शांत होती जाती हैं, वैसे-वैसे माणिक्य झलकने लगते हैं इसी प्रकार जैसे-जैसे कषायरूपी विकारों के कोलाहल समाप्त होते हैं, वैसे-वैसे शून्यस्वभावी आत्मरत्न झलकने लगता हैं 'एकोहं निर्मोहं जहाँ मात्र एक मैं दिखना प्रारंभ हो जाए कि एकमात्र मेरा स्वभाव है, संयोग-भाव मेरा धर्म नहीं हैं यह अनुभूति जिस दिन तुम्हारे अंदर झलकने लग जाए, उस दिन कहना कि मैं चारित्र की ओर जाना शुरू कर रहा हूँ जब तक निज-भाव नहीं आता, तब तक भक्त व भगवानों की भीड़ तो दिखेगी, पर भगवत्ता नजर नहीं आयेगीं चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमायें नजर आयेंगी, आचार्य व मुनि नजर आयेंगे; परन्तु चैतन्य चारित्र का चमत्कार, जो निजानुभव की परिणति है, वह अनुभव में नजर नहीं आएगां भो चैतन्य! जिसने स्वभाव को जाना है, उसे कुछ नहीं झलकेगां उसे तो मात्र एक शून्य-स्वभावी निजानन्द ही दिखेगां जीवन में ध्यान रखना, चारित्र का व्याख्यान कर रहे हैं, पर चारित्र व्याख्येय नहीं हैं स्वरूप के वेदन होने का नाम है यथाख्यात-चारित्र जो ग्यारहवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है
और चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण होता हैं यह ऐसी आत्मा की दशा है जैसे कि पानी शांत हो जाये तो चेहरा दिखना प्रारंभ हो जाता हैं जिस चित्त ने मुझे पांच पापों में संलग्न किया था, उबलती कषायों में कभी भगवती-आत्मा नहीं दिखती थी, पर चित्त के शांत होने पर निज में ही निज का यथाख्यात–चारित्र दिखना प्रारंभ हो जाता है, वही भगवती-आत्मा हैं अतः तुम अपने मन के संकल्पों को स्थिर करों असंयमी आचरण को तिलाञ्जलि दो क्योंकि लड्डू-पेडा खाने में और विषयों में लिप्त होने में तथा घर में बैठकर कभी भगवान् आत्मा दिखने वाली नहीं हैं
__ भो ज्ञानी! आठवें गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण हैं जब यह जीव मिथ्यात्व के तीन टुकड़े करता है, तब भी करण (परिणाम) करता है, वहाँ पर भी अपूर्वकरण होता हैं कभी पूर्व में ऐसा वेदन नहीं किया हो, ऐसे वेदन का होना ही अपूर्वकरण हैं आचार्य भगवान् अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं: जब तक मुख में कड़वाहट है,
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