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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 137 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 "कारण कार्य भाव"
सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मातं33
अन्वयार्थ : जिनाः = जिनेन्द्रदेवं सम्यग्ज्ञानं कार्य = सम्यग्ज्ञान को कार्य और सम्यक्त्वं कारणं = सम्यक्त्व को कारणं वदन्ति = कहते हैं तस्मात् = इस कारणं सम्यक्त्वानन्तरं = सम्यक्त्व के बाद ही ज्ञानाराधनम् इष्टम् = ज्ञान की उपासना ठीक हैं
कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हिं दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् 34
अन्वयार्थ : हि = निश्चयकरं सम्यक्त्व ज्ञानयोः = सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों के समकालं जायमानयोःअपि = एक ही काल में उत्पन्न होने पर भी दीपप्रकाशयोः इव = दीप और प्रकाश के समानं कारणकार्यविधानं = कारण और कार्य की विधिं सुघटम् = भले प्रकार घटित होती हैं
मनीषियो! अंतिम तीर्थेश भगवान् महावीर स्वामी के शासन में हम सब विराजते हैं आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने सम्यज्ञान की चर्चा करते हुए कहा कि जीव का लक्षण 'चेतना' हैं जिसमें चेतना है, वही चैतन्य है, वही चैतन्य भगवती-आत्मा हैं "भवम् ज्ञानम्", भव शब्द का अर्थ है 'ज्ञान' उस ज्ञान से युक्त जो है, उसका नाम है भगवानं अब अपनी पहचान कर लेना, आप क्या हो? द्रव्यदृष्टि से जब देखते हैं तो निगोदिया में भी भगवान् है, मनुष्य भी भगवान् हैं
भो ज्ञानी! जब राग की तृष्णा और भोगों की लिप्सा में मनुष्य पाप के पंक में फँस जाता है, तब उस पंक में फंसे मन को निकालने के लिए मन-हस्ती को ज्ञान का अंकुश चाहियें अहो! पाप तूने किया और उसे धोने भगवान आएँगे? यह कर्ता-दृष्टि भूल जाओं लगता है कहीं न कहीं कतत्वभाव से जुड़े हो कि भगवान की कृपा होगी, तो हो जाएगां अहो ! वे परमेश्वर कर्मातीत हो चुके हैं, वे तुम्हारे पाप-पंक को धोने नहीं
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