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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 121 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
भो मनीषियो! निज में स्थित हो जाना और पर से हट जाना वही वास्तविक स्थितिकरण हैं दूसरे को सम्हालने वाले करोड़ों हैं, परंतु स्वयं को सम्हालनेवाले करोड़ों में से एक हैं जब दूसरे के घर में कुछ होता है, तो बहुत समझदार होते हैं कि ऐसी होनहार थीं जब स्वयं के घर में कोई घटना घटती है, तो समझदारी कहाँ चली जाती है ? रावण को सब समझा रहे थे, अच्छा नहीं किया जो सीता का हरण कर लियां अरे! उसने तो एक सीता का हरण किया, एक पर दृष्टि डाली, परंतु, हे मन के रावणो! अपने मन से पूछ लो कि कितनी सीताओं के शील को भंग कर चुके हो ? वहाँ तुम्हारी समझ कहाँ चली गयी थी? वहाँ स्थितिकरण करने क्यों नहीं पहुँचे थे? आज यह समझ लेना कि जिनेंद्र के शासन को मात्र क्रियाओं में बांधकर मत रखनां जिनेंद्र के धर्म को अंतरंग की परिणति का धर्म बनाकर चलनां यह जितना व्याख्यान चल रहा है, क्या इसमें अध्यात्म नहीं है ? क्या इसमें सदाचार नहीं है ? क्या इसमें लोकाचार नहीं है ? सब एकसाथ चल रहा हैं क्या इसमें पूजा नहीं है ? व्यवहारिकता नहीं है ? जो सम्यक्त्व से मंडित है, उसी की तो पूजा हैं
भो ज्ञानी! इसीलिए ध्यान से समझना, वह पूजा नहीं करते, उनका पूजा नहीं करतां अरे ! ऐसा पूजा कहकर तुमने पूजा करके भी पूजा खो दी, क्योकि तुम्हारे पास उपगूहन ही नहीं था, स्थितिकरण ही नहीं था अच्छा बताओ आप जिसके बारे में चर्चा कर रहे हो, उसको समझाने कब गये थे? बोले-हमें तो समय ही नहीं मिला तब तुम्हें कहने का क्या अधिकार ? मैं तब मानता आपको धर्मात्मा, जब किसी धर्मात्मा को पतित होते देखकर तुम तुरंत उठाने पहुँच जाते वह पतित हो रहा है, उसके प्रचार में तुम लगे हो तुम्हारा कर्तव्य यह बनता है, कि पहले प्रचार रोकना चाहिए था, फिर आपको उनके पास जाना चाहिए थां ध्यान रखना, यह मत सोचना कि मैं श्रावक हूँ गुरु किसके हैं, धर्मात्मा किसका है ? जब आपके गुरु हैं, आप उनके भक्त हो और कहीं आपको कमी नजर आ रही है, तो भो ज्ञानी! अपने गुरु में खोट तू देखता रहेगा ? एक पाषाण की प्रतिमा भी लाता है तो प्रतिष्ठा कराने के पहले प्रतिष्ठाचार्य से पूछ लेता है कि इसमें जो कमियाँ हों, वो अभी बता दो, लेकिन भगवान् बनने के बाद फिर कमी मत निकालनां यदि तुम्हें गुरु में कमी दिखे, तो दीक्षा लेने के पहले सब देख लों
भो ज्ञानी! जब मेरी क्षुल्लक-दीक्षा हो गयी, तो एक विद्वान आये और एकांत पाकर बोले- क्षुल्लक जी! एक बात बताएँ, आप मान लोगे ? हमने कहा-यह तुम्हारी शर्त नहीं हैं बताना तुम्हारी बात, मानना हमारी बात हैं बोले- मेरी ऐसी भावना है कि इस संघ से दूसरे संघ में चलो और व्यवस्था हम कराये देते हैं आपको देखकर हमें ऐसा लगने लगता है कि हम तो आपको अमुक-अमुक संघ में ले चलें हमने कहा- बहत अच्छी बात हैं लेकिन, भैया! यह बताओ कि ऐसा क्यों करें ? बोले-वहाँ आपकी अच्छी प्रतिष्ठा बढ़ेगी और अच्छे रहोगें हमने कहा- भो ज्ञानी! यह प्रतिष्ठा के पीछे तू गुरु से छुड़ायेगां अरे! प्रतिष्ठा के लिए मुनि नहीं बना जाता, प्रतिष्ठा के लिए परमात्मा नहीं बना जातां धर्मात्मा की तो स्वयमेव प्रतिष्ठा हो जाती हैं इसीलिए
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