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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 116 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
अन्यथा रोना-ही-रोना पड़ेगा, क्योंकि सम्बंध विच्छेद होते हैं और स्वभाव विछिन्न होता नहीं है; यह प्रकृति का शाश्वत नियम हैं भो ज्ञानी! जो पर्याय उपजती है, वह विनशती भी हैं जो विनशती है वह किसी दूसरी पर्याय को भी प्राप्त होती हैं इस सत्य को समझनेवाला कभी नहीं रोतां परन्तु जो रोता है, वह असत्य में जीने को सत्य मानकर रो रहा हैं इसीलिये, भैया! जिसे तू वियोग कह रहा है, वह भी सत्य है और जिसे संयोग कह रहा है, वह भी सत्य है, परन्तु जिसका वियोग व संयोग नहीं, वह परम सत्य हैं यदि परम सत्य को प्राप्त करना चाहते हो तो आज से हँसना व रोना बंद कर देना, क्योंकि दोनों कषाय हैं इसीलिये आपसे श्रमण-संस्कृति कह रही है कि हँसो मत, रोओ मत, मध्यस्थ रहों
मनीषियो! ध्यान रखना कि पंच-परम गुरु व वीतराग-शासन के प्रति यदि कोई विपरीत कथन करेगा, मेरी सामर्थ्य होगी तो मैं उससे कहूँगा कि ऐसा मत कहों यदि सामर्थ्य नहीं है, तो मैं उसको सुनूँगा नहीं, उठकर चला जाऊँगां धर्म व धर्मात्मा की आलोचना सुनकर अपने जीवन में गन्दगी नहीं भरना चाहता, क्योंकि यदि खोटे संस्कार मेरी पर्याय में भर दिये गये और वहाँ मेरी समाधि चल रही होगी, तो वे शब्द मेरे अन्दर गूंजने लगेंगे, तो मेरी समाधि भंग हो जायेगी जिनवाणी कह रही है: उत्तम पुरुष वह होते हैं, जो स्वयं के कल्याण की चिंता करते हैं; मध्यम पुरुष वह होते हैं, जो शरीर की चिंता में डूबे हैं; जो भोगों की चिंता में लिप्त हैं, वे अधम हैं
भो ज्ञानी आत्माओ! भगवान महावीर दुनियाँ को नहीं सुधार पाये तथा भगवान् आदिनाथ अपने नाती को नहीं समझा पाये, तो हम कौन-से खेत की मूली हैं सब जानते हैं, फिर भी नहीं मान रहें उनकी होनहार वह जाने, हमें संक्लेष-भाव नहीं करना भगवान् अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं: उपगूहन का दूसरा नाम उपबृहण भी हैं स्वयं के गुणों को एवं दूसरों के अवगुणों को ढंकना तथा दूसरों के गुणों को एवं अपने अवगुणों को प्रकट करना, इसका नाम उपबृंहण-अंग हैं आप यह विश्वास रखना कि किसी की निंदा करने से निंदा होती नहीं है और किसी की प्रंशसा करने से प्रशंसा होती नहीं यदि आपने समता से सहन कर लिया, तो असंख्यात-गुणी कर्मा-निर्जरा हो रही हैं ध्यान रखो, यश भी यशःकीर्ति नामकर्म से तथा अपयश भी अयशःकीर्ति नामकर्म से मिलता है, परन्तु निन्दा करनेवाले बेचारे व्यर्थ में कर्म का बंध कर लेते हैं, उनकी हालत खराब ही हैं कवियों ने तो लिख दिया है: "निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छबाय" अपने आँगन में कुटि बनवाकर समता से निन्दक को भी आप सम्मान दे दों
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