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जब तक अपने पापों के प्रति रुदन प्रकट न हो, तब तक भीतरी मलिनता का प्रक्षालन नहीं होगा. और जब तक चित्त की शुद्धि नहीं हो जाती, साधना की सिद्धि असम्भव है. अतः आज यह अत्यन्त उपादेय है कि परमात्मा के पथ की जिज्ञासा तीव्र बने, संसार की आसक्ति कम हो और अपने पापों के प्रति भय व रुदन हो.
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