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आस्था की ओर बढ़ते कदम इस प्रभावक श्रावक से मिल रहा था, जिसे शहर के निवासी सन्मान की दृष्टि से देखते थे। उस दिन से हमारा दैनिक मिलना शुरू हुआ। जव हम मिले थे तब हमारे पास कोई पुस्तक नहीं थी पर यह इस के सहज समर्पण का फल है कि हमारे पास हजारों ग्रंथ हैं। आज मैं जो हूं, जैसा हूं इस सव के पीछे मेरे धर्मभ्राता की मेरे प्रति भक्ति व सहज समर्पण के कारण हुं इस समर्पण की यात्रा ने हमें पंजावी भाषा के प्रथम जैन लेखक, अनुवादक, इतिहासकार व कहानीकार तक बना दिया । मैं जीवन में अपने धर्मभ्राता रविन्द्र जैन की भेंट को महत्वपूर्ण उपलब्धि मानता हूं। यह अपनी बात की चेष्टा करता है पर अंतिम रूप से सिर झुका कर मेरा निर्णय मान लेता है। यह कई बार मेरे से चर्चा करता है, जिस से इसके ज्ञान का ही पता चलता है । आज इसने मुझे नई पहचान दी है। मैं एक कस्बे से राष्ट्रपति भवन तक पहुचा । इस का श्रेय मेरे माता-पिता, गुरूओं के आर्शीवाद, परिवार के सहयोग के वाद मेरे धर्मभ्राता को ही जाता है । यह रिश्ता देश, काल, जाति, रंग, आयु के भेद से परे है। मेरी हमेशा चेष्टा रही है कि मैं अपने धर्मभ्राता को हर तरह संतुष्ट व प्रसन्न रखूं । उसे कभी अपनी दूरी का एहसास न होने दूं । पर संसार के कार्यों में आदमी ऐसा उलझता है कि अपनों को चाहते हुए भी कम ध्यान दे पाता है। इन सब बातों के होते हुए भी मेरे धर्मभ्राता में गुण ही गुण हैं । वह दूसरों के गुणों को अपना है । वह किसी को भी एक पल में प्रभावित कर सकता है 1 वह हर कार्य में मेरी सूरत देखता है। एक बात हम दोनों में समान है वह यह कि धर्म के प्रति आस्था । यही आस्था का ही फल था कि मुझे विभिन्न विद्वानों, मुनिराजों, साध्वीयों व आचार्यों के दर्शन करने, उनसे भेंटवार्ता करने, पुस्तकें लिखने की, तीर्थ यात्रा की प्रेरणा मिली ।
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