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- आस्था की ओर बढ़ते कदम मेरे जीवन के हर दुःख सुख को अपना समझता है। मेरा हित इसका हित है। जिस कार्य को शुरू कर देता है उसे पूरा करके छोड़ता है। इस के कारण मुझे जैन समाज की सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। विभिन्न सम्प्रदायों के मुनियों से मुलकात, साहित्य प्रकाशन, समारोह, संस्था निर्माण में इस का दिमाग काम करता है। पर यह कार्य मेरे नाम से करता है, अपना नाम छिपाने की चेष्टा करता है। यह त्यागी व संयमी है। यह स्वार्थ के वशीभूत कार्य नहीं करता। हमारा जीवन एक दूसरे के लिए है। इसी लिए विद्वान लोग हमारे प्रेम को सम्मान से देखते हैं। मैं ज्यादा बात को अधिक न बढ़ाता हुआ इस से हुई भेटवार्ता के अंश प्रस्तुत कर रहा हूं।
"उन दिनों श्री रविन्द्र जैन मालेरकोटला में सर्विस कर रहा था। किसी काम के लिए यह हमारे बैंक में एक मित्र के साथ आया। यह सूचना के लिए पहले भी आता था। पर मेरा इस से कभी संवाद नहीं हुआ था। श्री रविन्द्र जैन का मित्र, मेरा भी मित्र था। उसे किसी विभागीय सूचना की जरूरत थी। मैंने सूचना के बाद दोनों को चाय पिलाई।
फिर रविन्द्र जैन ने मुझ से मेरा नाम पूछा। नाम पूछने के विशेष कारण था उसे बैंक में उसे सप्ताह सूचना इकट्ठी करके भेजनी होती थी। मैंने अपना परिचय देते हुए बताया कि मैं तेरापंथी हूं। आचार्य श्री तुलसी मेरे गुरू हैं। मैं पुरूषों में जो उत्तम है उनका दास हूं। मेरी इस बात से मेरा धर्मभ्राता बहुत प्रभावित हुआ। फिर मैंने इसे धूरी अपने घर आने का निमंत्रण दिया। यह संक्षिप्त भेंट थी। जो मेरे जीवन पर छाप छोड़ गई। इस भेंट ने हमें जीने की कला का इतिहास सिखाया। धर्म के प्रति स्वाध्याय बढ़ा। फिर इस भेंट ने समर्पण की यात्रा का सफर शुरू किया। इस भेंट में मैंने रविन्द्र जैन को धूरी आने का निमंत्रण दिया। मेरे धर्मभ्राता ने
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